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आधुनिक हिन्दी - जैन साहित्य
भगवान महावीर के 2500वें निर्वाण वर्ष के उपलक्ष्य के अनुमोदनार्थ सन् 1975 के वर्ष में जैन कथा - साहित्य के भण्डार की सराहनीय श्रीवृद्धि हुई है।
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‘जैन कथा-साहित्य के अनुपम रत्नों के रहने पर भी अभी इस क्षेत्र में पर्याप्त विकास की आवश्यकता है। यदि जैन कथाएं आज की शैली में लिखी जाएं तो इन कथाओं से मानव का निश्चय ही नैतिक उत्थान हो सकता है। आज तिजोरियों में बन्द इन रत्नों को साहित्य-संसार के समक्ष रखने की ओर लेखकों को अवश्य ध्यान देना होगा। केवल ये रत्न जैन समाज की निधि नहीं है, प्रत्युत इन पर मानव मात्र का स्वत्व है। "
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इस प्रकार हम देखते हैं कि आधुनिक युग में भी कथा वस्तु सामाजिक धरातल को नहीं स्पर्श कर सकी। हाँ, समय के साथ उनकी भाषा शैली में यत्किंचित आधुनिकता आई । तथापि रोचक शैली में लिखित इन कथाओं को पढ़ने से मानव-मन की गहराइयाँ, धर्म की महत्ता और सद्वृत्तियों की पहचान मिल जाती है।
नाटक :
हिन्दी साहित्य में नाटक के विविध रूपों का जितना उत्कृष्ट विकास हो पाया है, उसकी तुलना में इस सीमित क्षेत्र में नाटकों की संख्या पर्याप्त रूप से कम है। स्वाभाविक है कि धार्मिक उपदेशात्मक लक्ष्य होने से पौराणिक व धार्मिक विषय-वस्तु लेकर नाटक लिखना सबकी रुचि या वश की बात नहीं हो सकती। फिर भी एक बात लक्षित होती है कि जितने नाटक लिखे गये हैं, वे सभी प्रायः अभिनयात्मक व सरल प्रवाहमयी शैली में लिखे गये हैं। आधुनिक टेकनीक का निर्वाह भी यथाशक्य इन नाटकों में पाया जाता है। विशेषकर 60 के अनन्तर जो नाटक लिखे गये हैं, उनमें आधुनिक साज-सज्जा और संकेतों का विशेष ध्यान रखा गया है, जैसे- श्रीमती कुंथा जैन के रेडियो नाटक, नृत्य-नाटिका एवं रूपकों में पाया जाता है। विषय वस्तु भले ही पौराणिक, धार्मिक या लौकिक रही हो, लेकिन मनोवैज्ञानिक विश्लेषण, रंगमंचीय साज-सज्जा, आधुनिक समाज का यथासंभव प्रतिबिम्ब अथवा भाषा-शैली की नूतनता आज के नाटकों में पाई जाती है।
हिन्दी जैन नाटकों का प्रादुर्भाव उस समय हो चुका था, जब भारतेन्दु काल में पारसी रंगमंच के नाटकों की धूम मची थी। ग्रामीण व साधारण जनता के लिए ये नाटक अभिनीत होते थे, जो हंसी-मजाक, ठिठोली से युक्त बाजारू किस्म के थे । साहित्यिक रुचि रखने वाले विद्वानों को ऐसे नाटकों में अश्लीलता
1. नेमिचन्द्र शास्त्री - हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन, पृ० 106.