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आधुनिक हिन्दी-जैन-गद्य-साहित्य का शिल्प-विधान
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भाषा-शैली :
यह उपन्यास काफी समय पहले लिखा गया है, फिर भी गोपालदास जी की भाषा प्रायः साहित्यिक रही है। एक निश्चित उद्देश्य को लेकर चलने वाले धार्मिक उपन्यास में भाषा की मार्मिकता, वर्णनों की सुरम्य छटा या विश्लेषणात्मक शैली की अपेक्षा रख ही नहीं सकते। फिर भी बरैया जी ने भाषा में स्वाभाविक अलंकारों की सृष्टि से उपन्यास को रोचक बनाया है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, दृष्टांत आदि अर्थालंकार व प्रास-अनुप्रास, यमक आदि शब्दालंकारों का उचित प्रयोग कर शैली में साहित्यिक वातावरण खड़ा कर दिया है-जैसे-सूर्य का अरुण वर्ण प्रतिबिंब समुद्र की उछलती हुई जल-किल्लोलों में तितर-बितर होता हुआ ऐसे भ्रम को उत्पन्न करता है, मानों तपाये हुए सुवर्ण की धाराएं ही लहरा रही हैं।' तो कहीं रूपक में भावों को स्पष्ट करते हैं-विधाता रूपी सुनार ने अपने संसार का एक आभूषण बनाने के लिए सूर्य रूपी सुवर्ण के गोले को किरण रूपी संडासी पकड़े हुए पानी में डाल दिया। उपमा का प्रयोग तो लेखक ने अनेकों बार किया है। दार्शनिक विचारधारा को व्यक्त करने के लिए रूपक और दृष्टान्त अलंकार का समीचीन प्रयोग भाषा शैली में किया गया है-यथा-रूपक के लिए-सम्यक्त-सलील के न मिलने से मिथ्यात्व-आतप-दग्ध दूरभव्य संसार में इसी प्रकार चक्कर खाते रहते हैं। या दृष्टान्त अलंकार में सम्यक्त के महत्व को बताते हुए लिखते हैं-थोड़ी ही देर में सूर्य देव का उदय होने वाला है, जिस प्रकार सम्यक्त के प्रादुर्भाव से कुछ पहले 'करण-लस्थि' के प्रभाव से मिथ्यात्व दूर भाग जाता है, उसी प्रकार सूर्योदय के पहले संध्याक्त लालिमा से अंधकार बिना हो गया। ऐसे ही 'आखिर झूठ-झूठ है और सच-सच है, काल की हांडी बहुत समय तक नहीं चलती।' इस तरह पृष्ठ-पृष्ठ पर अलंकारों का सौन्दर्य निखरा हुआ प्राप्त होता है।
भाषा शुद्ध खड़ी बोली है तथापि गुजराती व अंग्रेजी के अनेक शब्दों का यत्र तत्र प्रयोग स्वाभाविक हुआ है, यथा-भूपसिंह के खीचे में से (गुजराती शब्द) कागज कलम निकालकर निम्नलिखित चिट्ठी लिखी। (पृ. 132) जयदेव ने वसीयतनामों को नियत करके उसे दूकान का कार्यवाहक 'मैनेजर' बना दिया। मुझे वहाँ की रिपोर्ट' दर तीसरे दिन बराबर मिला करती है। तदुपरांत चहुं ओर, असन, वसन, बिन आदि ब्रजभाषा के शब्द-प्रयोग से भाषा में मिठास आ गई है। 1. द्रष्टव्य-सुशीला-उपन्यास, पृ. 118, द्वितीय खण्ड, सर्ग-2. 2. द्रष्टव्य-सुशीला-उपन्यास, पृ० 80. 3. वही, पृ. 4.