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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
4. अंजना की समस्त देह पिघल कर मानो उत्सर्ग में पद्म पर एक अदृश्य बल कणिका मात्र बनी रह जाना चाहती है।
5. भाले में फलक-सा एक तीक्ष्ण प्रश्न कुमार की छाती में चमक उठा।
"मुक्तिदूत' की भाषा-शैली में संस्कृत के तत्सम शब्दों के साथ प्रचलित विदेशी शब्दों का व्यवहार भाषा में प्रवाह और प्रभाव दोनों उत्पन्न करता है। 'मुक्तिदूत' की भाषा प्रसाद की भाषा के समान सरस, प्रांजल, और प्रवाह युक्त है। 'प्रसाद' के पश्चात इसी प्रकार की भाषा और शैली कम उपन्यासों में मिलेगी।" यहाँ नेमिचन्द्र शास्त्री का उपर्युक्त कथन उचित नहीं है। लेखक ने अपनी इस कृति के रूप, तंत्र एवं विशेषता पर प्रकाश डालते हुए प्रस्तावना में लिखा है कि-हिन्दी के लेखक, आलोचक और इतिहासकार को उल्लेख योग्य तक नहीं समझा। अपने कथ्य में यह एक आध्यात्मिक और दार्शनिक मिजाज की कृति है। रूप तन्त्र में यह पर्याप्त रूप से प्रयोगशील है। हिन्दी उपन्यास में जब प्रयोगशीलता अनजानी थी, तब 'मुक्तिदूत' के लेखक ने काफी सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक चेतना, प्रवाह के चित्रक और प्रतीकात्मक व्यंजना के उद्योतक प्रयोग इस कृति में किये थे। इतनी सूक्ष्मता और चेतना स्तरों की गहन अन्वेषण शीलता, इससे पूर्व हिन्दी उपन्यास में विरल ही देखने में आती है। मतलब कुल मिलाकर यह उपन्यास एक खासी दुरुह रचना है। श्री वीरेन्द्र कुमार जैन का अभिमत वैसे संपूर्ण सही है लेकिन अंतिम पंक्ति में 'दुरुह रचना' कहकर कृति का अवमूल्यन-सा कर दिया है, क्योंकि दुरुहता किसी कृति का गुण न होकर त्रुटि ही कही जायेगी। उद्देश्य :
___ 'मुक्तिदूत' उपन्यास को केवल जैन धर्म के सिद्धान्तों का साहित्यिक प्रतिपादन करानेवाली रचना समझकर उसकी जो अवहेलना-उपेक्षा की गई है, वह सचमुच दुःख की बात है तथा कृति व कृतिकार के प्रति अक्षम्य अपराध है। इसमें केवल जैन धर्म की नहीं मानव धर्म, विश्व धर्म व युग धर्म के अनेकानेक चिन्तन-विचार्य पहलुओं पर विश्लेषण किया गया है, गहराई में जाकर आदर्श रत्नों को निकाला गया है, राह ढूंढी गई है, प्रकाश पाने की कोशिश की गई है। "मुक्तिदूत' हृदय और बुद्धि के साहित्यिक प्रेम और अहं के युद्ध में विजयी होने वाले प्रेम का निरूपण करता है। 'मुक्तिदूत' अविभाज्य 1. नेमिचन्द्र शास्त्री-हिन्दी जैन साहित्य-परिशीलन, पृ० 74-75. 2. मुक्तिदूत-प्रस्तावना, पृ॰ 26.