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आधुनिक हिन्दी-जैन-गद्य-साहित्य का शिल्प-विधान
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अकेली?' अंजना मातृत्व के पद पर आसीन होने को है तो 'आकाश के छोर पर कहीं श्वेत बादलों के शिशु किलक रहे हैं।' उसी उक्ति में छन्दात्मक सूचन कर दिया है। उसी प्रकार निराशा की प्रतिध्वनि में 'कहीं-कहीं नदी की सतह पर मलिन स्वर्णाभा में वैभव बुझ रहा था।'
'पुस्तक की भाषा इसी भूमिका और वातावरण के अनुरूप सहज संस्कृत प्रधान है। पर लिखते समय मन, प्राण और इंद्रियों की एकाग्रता से भावगुम्फन के लिए रूप, रस, वर्ण, गन्ध और ध्वनि के व्यंजक जो शब्द अनायास लेखनी पर आ जाते हैं, उनके विषय में हिन्दी-संस्कृत का भेद किया नहीं जा सकता। प्रत्येक शब्द की एक विशेष अनुभूति, चित्र, वर्ण और व्यंजना लेखक के मन में व्याप्त है। विशेष भाव के तदनुकूल चित्रण के लिए शब्द-विशेष सहज ही आ जाता है और कभी-कभी कोश (Vocabulary) की भाषा-अभेद अनिवार्य हो जाती है। 'मुक्तिदूत' में भी ऐसा ही हुआ है। प्रवाह में आये हुए अनेक उर्दू शब्दों को जान-बूझकर निकाला नहीं गया है, यथा-परेशान, नज़र, जलूस, दीवानखाना, कशमकश, परवरिश, सरंजाम, वचन आदि। प्रत्येक शब्द अपने स्थान पर लक्षणा या व्यंजना की सार्थकता में स्वयं सिद्ध है। अंग्रेजी का 'रेलिंग' शब्द लेखक ने जान-बूझकर अपनी व्यक्तिगत रुचि की रक्षा के लिए लिया है, क्योंकि लेखक इस शब्द में लक्षित पदार्थ का एक अद्भुत चित्रण सौंदर्य पाता है। अपने बावजूद, और 'जो भी हो' (यद्यपि के लिए) का लेखक ने बार-बार प्रयोग किया है। ये उनकी विशिष्ट शैली के अंग है। इसके साथ ही 'यह लो', 'अरे लो', का प्रयोग भी विशिष्ट भाव प्रदर्शन के लिए लेखक ने बार-बार किया है। 'झालना' (पकड़ना) जैसा गुजराती शब्द भी मौजूद है। उसी प्रकार एक-एक क्रिया के लिए लेखक अनेकानेक मनभावन शब्द चित्र खींचने में चतुर है-शब्दों के चितेरे थे शब्द-खजाने के स्वामी है-'अवलोकन' की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को उन्होंने भिन्न-भिन्न शब्दों के द्वारा व्यक्त किया है और हर चित्रण अपनी जगह सार्थक और सुन्दर है। वे एक-एक वाक्य में कल्पना और भावों का सागर ऊंडेल देते हैं, यथा-'समर्पण की दीप शिखा-सी वह अपने आप में ही प्रज्ज्वलित और तल्लीन थी।
2. चम्पक और भुवदण्डों पर कमल-सी हथेलियों में करींक की आरतियाँ झूल रही हैं।
3. कपोल पाली में फैली हुई स्मित रेखा उन आँखों के गहन बरारे तटों में जाने कितने रहस्यों से भरकर लीन हो गई। 1. मुक्तिदूत-आमुख, पृ० 17, 18.