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आधुनिक हिन्दी-जैन-गद्य-साहित्य का शिल्प-विधान
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अचानक पृथ्वी में से एक सनसनाती हुई फुकार सी उठी और अगले ही क्षण स्फूर्त विष की नीली लहरों का लोक चारों ओर फैल गया। सहस्रों फनोंवाली मणिधर भुजंग भूगर्म से निकलकर चारों ओर नृत्य कर उठे। उनके मस्तक पर
और उनकी कुंडलियों में अद्भुत नीली और पीली और हरी ज्वालाओं से झगर-झगर करते मणियों के पुंज झलमला रहे हैं। उनकी लौ में से निकल कर नाना इच्छाओं की पूरक विभूतियाँ अप्रतिम रूप सी परियों के रूप धारण कर एक में अनन्त होती हुई अंजना और बसन्त के पैरों में आकर लोट रही हैं, नाना भंगों में अनुरोध-अनुनय का नृत्य रचती वे अपने को निवेदन कर रही हैं।'
इस ओर जंगल में भी प्रकृति अपने मधुररव से गुंजन भी करती सुनाई पड़ती है-'ऊषा की पहली स्वर्णाभा में नहाकर प्रकृति मधुर हो उठी। शैल घाटियाँ पंखियों के कलगान से मुखरित हो गई। झरने की चूड़ा पर स्वर्ण-किरीट और मणियों की राशियों लूटने लगी।
मानव-प्रकृति की भिन्न-भिन्न छटाओं-दशाओं की लेखक ने मनोवैज्ञानिक ढंग से चर्चा की है। प्रकृति को काव्यात्मक रूप से जहाँ सजाया है, वहाँ मानव प्रकृति को साहजिकता व स्वाभाविकता से गहरी थाह लेकर प्रस्तुत किया है।
सौंदर्य की सृष्टि पूरे उपन्यास में छलक-छलक कर उभर आना चाहती है-अपने पूरे वैभव को साथ लिए-काव्यात्मक सौंदर्य लिए प्रत्येक वर्णन अपनी विशिष्टता व्यक्त करता है।' 'मुक्तिदूत' के कथानक का विस्तार मानो अनन्त आकाश में है, इससे पात्रों को अधिक से अधिक फैलने का अवसर मिला है। मानुषोत्तर पर्वत, लवण समुद्र, अनन्त द्वीप समूह विजयार्ध की गिरिमाला आदि के कल्पक सौंदर्य से कथा में बड़ी गूढ़ता आ गई है।' (आमुख, पृ. 17)। भाषा-शैली :
"श्री जयशंकर प्रसाद की 'कामायनी' के बाद महाकाव्य के स्तर पर, सार्वदैशिक और सार्वकालिक गुणवत्ता की हिन्दी में शायद यह अपने ढंग की अनोखी कृति है। क्लासिकल और रोमानी सृजनात्मकता का इसमें एक अनूठा समन्वय हुआ है। 'मुक्तिदूत' की भाषा-शैली कहीं सरल से सरलतम हो जाने से पाठक को साथ ले चलती है, तो कहीं दुरुह हो जाने पर पाठक उसका साथ निभा नहीं पाता है। भाषा-शैली में काव्यात्मक गुण के कारण लम्बे-लम्बे वाक्य-विन्यास, भावों की गहराई के कारण शब्दों की बारीकियाँ थोड़ी 1. मुक्तिदूत-उपन्यास, पृ. 204, 205. 2. वही, पृ. 204, 211. 3. मुक्तिदूत-आमुख, पृ. 1 (कवर पृष्ठ)।