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आधुनिक हिन्दी-जैन-गद्य-साहित्य का शिल्प-विधान
457 किया जाय और जीवन को धन्य बनाया जाय। 11वें सर्ग के प्रारंभ में अध्यात्म रस की ज्ञानपूर्ण चर्चा लेखक ने बड़ी ही आलंकारिक व सुरुचिपूर्ण ढंग से बताई है। सेठ रतनचन्द को मुनिराज धर्म की देशना (उपदेश) देकर धर्म के प्रति अधिक उत्साही करते हैं और जगत के व्यवहारों की निरर्थकता बताते हुए कहते हैं-'संसार में कहीं भी सुख नहीं है। इन्द्रियजनित सुख पराधीन, परिणाम में दुःखदायी और केवल अविचारित रूप है। सच्चा सुख मोक्ष में है। वह सर्वथा नित्य, शुद्ध और स्वाद्य है। वह आत्मा का स्वभाव है। संसार के संपूर्ण विभावों को परित्याग करके केवल आत्म स्वभाव में लवलीन होने से उस अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति हो सकती है। ऐसा करने के लिए अर्थात् केवल आत्म स्वभाव में तल्लीन होने के लिए जैनेश्वरी दीक्षा ही एक मात्र साधन है। + + + परन्तु यह जैनेम्बरी दीक्षा बड़ी कठिन है। इसको वे ही धारण कर सकते हैं, जिनका संसार में मोह छूट गया है और जिन्हें यथार्थ में विषय सुखों से विरागता आ गई हो। यह सिंहों का कार्य है, न कि इन्द्रियों के अधीन रहनेवाले कायर पुरुषों का। 20वें सर्ग में कन्याशाला के वर्णन, वहाँ के भीत्ति-चित्रों एवं उस पर अंकित आदर्श सूत्रों और कथाओं में एक ओर जैन धर्म का प्रभाव लक्षित होता है तो दूसरी ओर सूरत की दिगम्बर जैन श्राविकाशाला का प्रभाव लेखक के दिमाग पर महसूस होता है। इस प्रकार के धार्मिक कथायुक्त उपन्यासों में बीच-बीच में उपदेशात्मक वर्णनों का आ जाना अत्यन्त स्वाभाविक है। आठवें सर्ग में प्रेम के स्वरूप का बहुत ही मार्मिक विश्लेषण किया गया है। जैसे-'यह समस्त चेतनात्मक जगत इसी प्रेम का मूल है। प्रेम न होता तो संसार भी नहीं होता। जो प्रेम की उपासना नहीं करता, वह मानव-जन्म का तिरस्कार करता है। प्रेम की पूजा करना प्राणी का पवित्र पुण्य कर्म है। प्रेम से पाप का सम्बंध नहीं है। प्रेम के समदृष्टि राज्य में 'निज' और 'पर' का भेद नहीं है? जो प्रेम का उपासक है वह सच्चा सेवक है, यह परत्व बुद्धि को सर्वथा छोड़कर एकत्व के एक प्राणत्व के आनंद राज्य में विहार करता हुआ स्वर्ग सुख का परिहार करता है। लेकिन प्रेम की ऐसी उदात्त विचारधारा दुष्ट उदय सिंह द्वारा भेजी गई दूती के मुख से सर्वथा अनर्गल प्रतीत होती है। सुशीला ने इस कथन का प्रतिवाद भी उचित ढंग से ही किया कि-तुम्हारा प्रतिपादित किया हुआ प्रेम-प्रेम नहीं है, लेकिन पैशाचिक, पाशविक किंवा अमानुषिक कर्म है। पशुओं में ऐसा ही प्रेम देखा जाता है। 11वां सर्ग संपूर्ण रूप से जैन दर्शन की मीमांसा
1. द्रष्टव्य-सुशीला-उपन्यास, पृ. 145. 2. वही, पृ.