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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
नितम्ब संपीडित पाद-युग्म में, मनोहरा भेचक नूपुरावली। विराजिता थी त्रिशला पदाश्त में, सरोष ध्रकी जिस भांति भंगिमा।
इसी प्रकार त्रिशला के नितम्बों को चन्द्रकान्त मणि के शिलाक्ष्य से, कों की, नेत्रों की शाण प्रस्तर से उपमा देने में भी कवि की कल्पना-शक्ति की रुचिरता का परिचय मिलता है। निम्नलिखित श्लेष में कवि ने राजा सिद्धार्थ और तालाब में साम्यता पैदा की है
सदा द्विजावास तथैव निर्मल, विशाल थे जीवनधाम राज्य के, तड़ाग-से शोभित पद्मयुक्त वे, नरेश तृष्णा हरते अधीन की।'
कवि को श्लेष, उपमा व रूपक अलंकार विशेष प्रिय है। भारत वर्ष की शोभा का कवि सुंदर आलंकारिक शैली में वर्णन करते हैं
सुकेश-सी कानन श्रेणियाँ जहाँ, प्रलब्ध माला भाय अर्क जन्हुजा, कटिस्थ विन्धादि नितम्ब वेश-सा, लसा पद-क्षालम शील सिन्धुता॥
'वर्द्धमान' में प्रयुक्त चमत्कार प्रधान श्लेष के बार-बार प्रयोग पर अपना अभिमत देते हुए डा. विश्वंभर नाथ उपाध्याय जी लिखते हैं कि-"यह आश्चर्य का विषय है कि अनूप शर्मा इस परंपरा के दोषों से परिचित होते हुए भी इसी का अनुकरण करते रहे। 'प्रिय-प्रवास' में हरिऔध जी ने संस्कृत के उत्तरकालीन काव्यों के 'वस्तु-विधान' को अपनाकर भी श्लेष-यमक की परंपरा को पूर्णतः छोड़ दिया था। अनूप शर्मा इस चमत्कारवादी परंपरा को नहीं छोड़ सके।
अलंकार-निर्देशन के लिए अर्थावृत्ति, शब्दावृत्ति और अनुप्रास आदि का भी 'वर्धमान' में यथोचित प्रयोग किया गया है-यथा
अधोवस्त्रा, अभिता, अशंसिता, अशोच देहा, अमानिता।
अदर्शनीया, अनलंकृता जमा, अभागिनी भी सबला अमानुषी॥ उसी प्रकार
'तडाग थे स्वच्छ तडाग हो यथा, सरोज थे प्रफुल्ल सरोज हो यथा। शशांक था मंजु शशांक हो यथा, प्रसन्नतापूर्ण शरत्वस्वभाव था।
(140-4) राजा सिद्धार्थ की हेमंत के साथ आलंकारिक शैली में कवि तुलना करते
1. अनूप शर्मा-वर्धमान-सर्ग-1, पृ. 47-48. 2. वही-वर्धमान-सर्ग-1, पृ. 37-11. 3. विश्वंभरनाथ उपाध्याय-अनूप शर्मा-कृतियों और कला, पृ॰ 153. 4. वर्धमान, पृ. 486-189.