________________
आधुनिक हिन्दी-जैन-गा-साहित्य का शिल्प-विधान
445
of narrative) कार्य-कलापों पर नहीं निर्भर करती वरन् नायक के व्यक्तित्व पर निर्भर करती है। नायक ही उन बिसरे हुए सूत्रों, तत्त्वों और घटनाओं में सम्बंध स्थापित करता है। और चरित्र को लेकर उपन्यास के भिन्न-भिन्न अवयवों का ढांचा खड़ा किया जाता है। ऐसे उपन्यासों में लेखक की इच्छा का प्रतिबिंब मात्र होता है। भिन्न-भिन्न घटनाओं में कोई युक्ति संगत है या नहीं, इस पर उसका ध्यान नहीं रहता। सुगठित कथा वस्तु में घटनाएं एक दूसरी से इस प्रकार सम्बंधित रहती हैं कि वे साधारणतः अलग नहीं की जा सकती और सब अंतिम परिणाम या उपसंहार की ओर अग्रसर होती हुई उसको ऐसा रूप प्रदान करती हैं कि उसके भिन्न-भिन्न अवयव एक दूसरे से मिले हुए प्रतीत होते हैं। ऐसे उपन्यासों की रचना एक व्यापक विधान के अनुसार की जाती है और उनकी सफलता घटना-समूहों पर निर्भर रहती है। फिर भी इन दोनों का भेद बहुत साधारण है। चरित्र-चित्रण :
उपन्यास में चरित्र-चित्रण भी अत्यन्त महत्व का तत्त्व है। इसीलिए प्रेमचंद जी को कहना पड़ा कि-'मैं उपन्यास को मानव चरित्र का चित्र मात्र समझता हूँ।' उपन्यास की कला का उद्देश्य, सफलता-असफलता, उत्कृष्टता-निकृष्टता आदि सभी इसी अंग पर विशेष निर्भर करता है। उपन्यास के पूर्वकथित समस्त तथ्यों का मूलाधार एक मात्र चरित्र ही तो है। सफल चरित्र वस्तु उपन्यास को ऊँची कोटि तक पहुँचाता है। उपन्यासकार की मनः कल्पित सृष्टि में यदि हम अपनी वास्तविक सृष्टि की अनुरूपता न पा सकें, यदि इस नवीन सृष्टि के पात्र हमें किसी अनजाने देश के लगें और यदि उनके साथ हमारी वैसी ही सहानुभूति न हो सकी, जैसी अन्य मानवों के साथ होती है, तो वे मानव सृष्टि के चित्र नहीं, किसी अन्य सृष्टि के भले हों। उपन्यास के चरित्रों के सुख-दुःख हमारे सुख-दु:ख जैसे प्रतीत हों तभी वे मानव के सफल चित्र कहे जा सकते हैं। 'चरित्रांकन की सफलता तो यह है कि पुस्तक बंद कर देने तथा सूक्ष्म विवरण भूल जाने पर भी उसके पात्र हमारी स्मृति में
जीवित रह सकें। यह सजीवता तभी आ सकती है जब उपन्यासकार मानवता - की सामान्य पीठिका पर अपनी कल्पना की कूची से रूप उकेरें, रंग भरे, जिसमें न तो अतिरंजना ही हो, और न ही अव्याप्ति हो।
उपन्यास में विस्तृत वर्णन, काल्पनिक वा यथार्थ चित्रों तथा मनोविश्लेषण के द्वारा पात्रों की मन:स्थिति, विचार-व्यवहार स्वाभावादि का परिचय परोक्ष या 1. शिवनारायण श्रीवास्तव : 'हिन्दी उपन्यास', पृ० 448.