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आधुनिक हिन्दी - जैन साहित्य
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'कहो कि क्या पाप धारित्रि में शुभे ?' 'असत्यता, क्रोध, कषाय आदि ही । ' 'नरेन्द्र वामे ! फल धर्म का कहो।' 'त्रिलोक - स्वामीत्य जिनके संपदा । " अलंकार - से भी काव्य में मानव स्वभाव का सुंदर चित्रण हो पाया
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है
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न दुग्ध-सा श्वेत चरित्र जीव भी धरित्रि में है अपवाद - से बचा । विपत्ति भी मानव की गुणावती प्रकाशती है करती प्रकृष्ट है ॥
इस प्रकार भाषा-शैली व अलंकारों की दृष्टि से 'वर्धमान' को पूर्णतः सफल महाकाव्य के रूप में स्वीकृत किया जा सकता है। उत्कृष्ट कोटि की कला का इसमें दर्शन होता है।
‘स्थानक वासी मुनि श्री की प्रेरणा से सौराष्ट्र के कवि मूलदास ने अनेक वर्षों के अथक परिश्रम एवं साधना से 'रामचरित मानस' की शैली पर 'वीरायाण' नामक महाकाव्य लिखा, परन्तु इसका जैन समाज में विशेष प्रचार-प्रसार नहीं हो सका।'
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'वीरायण' महाकाव्य में कवि मूलदास जी ने भी अनेक अलंकारों का प्रयोग किया है। शब्दालंकार में अनुप्रास व अर्थालंकार में उपमा रूपक, , उत्प्रेक्षा व दृष्टान्त कवि के प्रिय अलंकार दीख पड़ते हैं, क्योंकि प्रायः प्रत्येक पृष्ठ पर इनमें से किसी न किसी एक अलंकार का प्रयोग कवि ने इतने सहज ढंग से किया है कि ऐसा प्रतीत होता है अलंकार कवि की भाषा के अनुगामी बनकर बहते चले हैं। सभी अलंकार वर्णनों के अनुरूप अपने आप उपयोग में आ गये हैं। शब्दालंकार में प्रास-अनुप्रास देखिए
'पारसमनि के परस - कथीर कनक तुरत बने ।
वज्र पुरन्धर कर-कर में राजे, चरचरार धररर रव गाजे । महावीर महिमा अमित मो से, कहा न जाय,
क्षुद्र छीप से ज्यों कभी महोदधि न मपाय।'
कवि को अनुप्रास अत्यन्त प्रिय है । कवि की गौरवमयी वाणी इसमें प्रकट
होती है
शूरवीर समरथ दृश्य की प्रश्व, सरस बस बतलावहू । समशेर धर कर समर फऊ, रणरंग जंग जमावहू ॥ कायर नपुंसक विरुद्ध घर घर, मरद कब मत आवहू । दुहु दृश्य मोदक स्वर्ग रू जस समय नाहि गुमावहूं ॥ 12
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1. वर्धमान, पृ० 181.
2. डॉ॰ लक्ष्मीनारायण दूबे - ' हिन्दुस्तान त्रैमासिक - फरवरी - मार्च' 1977, पृ० 24.