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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
गया है। भगवत जैन की 'नरकंकाल' कविता में भी यही छंद प्रयुक्त हुआ है-30 मात्राओं वाला चतुष्पद छंद 16-14 की यति के साथ-मत्त सवैया छंद का प्रयोग भी उनकी कविता में देखने को मिलता है।
ईश्वरचन्द्र की 'अर्चना' कविता मुक्त छन्द का उदाहरण है, जिसमें मंगल अन्त्यानुप्रास का ही तुकान्त रूप देखने को मिलता है। अतएव कविता में प्रवाह के साथ गेयता भी बनी रही है-यथा
ओ वीतराग पुनीत देव! तुमसे ही अलंकृत मुक्ति का संगीत। अमा-निशि के गहन तम को भेद ज्योतिर्मान। रश्मि कमनियाँ सरस, कोमल, चपल गतिमान। लोक लहरों पर लिखें निर्वाण के मृदुगीत,
ओ वीतराग पुनीत उपर्युक्त विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि जैन काव्य में कवियों ने पारम्परिक छंदों का प्रायः प्रयोग किया है। 1970 ईस्वी के बाद की जैन मुक्तक रचनाओं में भिन्न तुकांत, रूपायत, अन्त्यानुप्रास, अतुकान्त आदि नूतन शैली के छंद तथा मुक्त छंद का प्रयोग भी मिलता है। 'नईम', दिनकर सोनवलकर, मुनि रूपचन्द आदि की भाव प्रधान मुक्तक रचनाओं में मानवतावादी स्वर के साथ नूतन शैली का भी दर्शन होता है।