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आधुनिक हिन्दी-जैन-काव्य का कला-सौष्ठव
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भी इसी परंपरा को अपनाया, जिसमें जायसी का 'पद्मावत' और तुलसी का 'रामचरित मानस' लिखे गये और आगे हिन्दी जैन महाकाव्य 'वीरायण' भी दोहा-चौपाई शैली में लिखा गया। जैन हिन्दी में भी साधारु का 'प्रद्युम्न चरित', लालचन्द का 'पद्मिनी चरित', रामचन्द का 'सीताचरित्र' और और 'भधर जी का 'पार्श्वपुराण' दोहा-चौपाई में लिखे गये उपलब्ध होते हैं। वैसे चौपाई का प्रमुख प्रयोग कथानक को जोड़ने के लिए होने से मुख्यतः महाकाव्य में प्रयोग होता है। लेकिन हिन्दी जैन कवियों ने अपने मुक्त काव्यों के लिए भी चौपाई का मुक्त प्रयोग किया है। विशेषकर मध्यकालीन जैन-भक्त कवियों ने। चौपाई में 10-8-12 पर विश्राम के साथ 30 मात्राएँ होती हैं और अन्त में दो गुरु कर्णतुर होते हैं, पर कभी-कभी 1 गुरु भी होता है। 'वीरायण' में चौपाई अपनी संपूर्ण सुंदरता के साथ दिखाई पड़ती है। पद-पद पर चौपाई की मिठास-रमणीयता मन हर लेती है। ज्ञात-खण्ड उपवन की शोभा का वर्णन कैसे घड़िया' चौपाई में कवि ने किया है
उड़त फुहार सलिल निर्मल यों, दंपति पिचकारिन डारत ज्यों। शीतल संद सुगंध समीरा, बहन लगे आवत जिन वीरा॥ स्वागत छन्द विहंग उच्चारे, कदलिका हिल पंखा डारे॥ वृक्ष अशोक निकट शीबिका से, उतरे जिनवर अमित सुलासे॥
449-9-3 चौपाई के समान ही दोहा छन्द भी 'वीरायण' में प्रमुख हुआ है। एक या दो चौपाई के बाद दोहा या सोरठा इस अनुप्रास से काव्य में आये हैं :
दोहरा :-जैसे संस्कृत का 'श्लोक' और प्राकृत का गाथा (गाहा) मुख्य छन्द माना जाता है, उसी प्रकार अपभ्रंश का दोहा। इसीलिए तो अपभ्रंश को 'दुहाविधा' कहते हैं। डा. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने 'दोहा' की उत्पत्ति स्थल अमीर जाति के 'विहनानों' में माना है-खोजा है। लेकिन लिखित रूप से दोहरे का सर्वाधिक प्राचीन रूप 'विक्रमोर्वशीय' के चतुर्थ अंक में देखा जा सकता है। 7वीं शती में योगेन्द्र के 'परमात्मप्रकाश' और 'योगसार' में भी अपभ्रंश के दोहों का ही प्रयोग हुआ है। जैन कवियों ने भक्ति, अध्यात्म व उपदेश के लिए दोहों का प्रयोग सर्वाधिक किया है।
1. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी-हिन्दी साहित्य का आदिकाल, पृ. 220. 2. डा. गौरीशंकर मिश्र 'जितेन्द्र' छन्दोदर्पण, पृ. 52. 3. डा. प्रेमसागर जैन : हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि, पृ. 92. 4. डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी-हिन्दी साहित्य का आदिकाल, पृ. 92.