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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य वे तब स्वर्ग-ज्योति सी आई, मुझे देखते ही मुसकाई।
भगवन्त गणपति की 'अतीत गीत' में भाव भाषा व कला का सुन्दर समन्वय द्रष्टव्य है
अहै वीणा के टूटे तार! तूं अनन्त में लीन हो रहा और सो रहा मौन; रागिनियाँ सुनाती तो हैं, पर तुझे जगाये कौन? थका संसार पुकार-पुकार, अहे वीणा के टूटे तार! युगवीर जी की कविता 'मेरी चाह' में भाव व भाषा का माधुर्य द्रष्टव्य
घर-घर चर्चा रहे धर्म की, दुष्कृत दुष्कर हो जावें, ज्ञान चरित उन्नत कर अपना, मनुज जन्म फल सब पावें।
रोग-मरी दुर्भिक्ष न फेले, प्रजा शान्ति से जिया करे परम अहिंसा धर्म जगत में,
फैल सर्वहित किया करे। इसी प्रकार परमेष्ठिदास की 'महावीर संदेश' में भी ऐसे ही भाव के साथ भाषा का प्रवाह मौजूद है
प्रेम भाव जग में फैला दो, करो सत्य का नित्य व्यवहार, दुराभिमान को त्याग अहिंसक, बनो यही जीवन का सार। धर्म पतित-पावन है अपना, निशदिन ऐसा गाते हो, किन्तु बड़ा आश्चर्य आप फिर क्यों इतना सकुचाते हो।
गणपति जी की 'अनुरोध' कविता की भाषा-शैली पर माखनलाल चतुर्वेदी की कविता 'फूल की चाह' का स्पष्ट प्रभाव लक्षित है
जब प्रभात में रवि किरणें आकर मुझको विसाकें दें, मेरी क्षुद्र आखों पर अलकगण मायावरण गिरा दें, पवन प्रवाह थिरकता हंसना-बढ़ना मुझको सिखा दें, भ्रमरावलियाँ गुण गा-गाकर मानिनी मुझे बना दें। तब होगा प्रारंभ पतन का मेरे वह निश्चय है, उस यौवन में आत्म-विस्मरण हो जाने का भय है,