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आधुनिक हिन्दी - जैन- काव्य का कला - सौष्ठव
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संस्कृत परंपरागत काव्य होने से समास शैली सहज न लगकर 'आडम्बर शैली' प्रतीत होती है। लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि सर्वत्र समास - शैली का ही निर्वाह किया गया है। सहज स्वाभाविक शैली का दर्शन भी हमें अधिकांश स्थलों पर होता है। त्रिशला एवं सिद्धार्थ के स्वस्थ दाम्पत्य जीवन के वर्णन में भाषा - - शैली की स्वाभाविकता रमणीय व प्रशंसनीय है। ऐसे प्रसंगों में शैली की प्रवाहमान तरलता आकर्षित करती है। 'वर्धमान' की भाषा व परम्परा -प्रियता के सम्बंध में अपने विचार अभिव्यक्त करते हुए डा० लालता प्रसाद सक्सेना लिखते हैं कि - भाषा-शैली पर 'प्रिय प्रवास' का प्रभाव है। 'भावों को प्रभावोत्पादक बनाने और उनकी प्रेषणीयता की वृद्धि के लिए समास, सन्धि और विशेषण पदों का प्रयोग बहुलता से किया है। रस - विदर्धन, रस- परिपाक और रसास्वादन कराने की क्षमता इस काव्य की शैलीगत विशेषता है। यद्यपि कवि ने संस्कृत के समासान्त पदों का प्रयोग खुलकर किया है, परन्तु उच्चारण-संगति और ध्वनि अक्षुण्ण रूप में विद्यमान है। संस्कृत-गर्भित पदों के रहने पर भी कृत्रिमता नहीं आने पाई है । यद्यपि आद्योपांत काव्य में संस्कृत के क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग किया है, तो भी पद - लालित्य रहने से काव्य का माधुर्य विद्यमान है। क्रिया पदों में भी अधिकांश क्रियाएं संस्कृत की ज्यों की त्यों रख दी गई है, जिससे जहाँ-तहाँ विरूपता - सी प्रतीत होती है। 2 डा० शास्त्री के इस कथन से हम सहमत नहीं हो सकते, क्योंकि कृत्रिमता, क्लिष्ट व अपरिचित शब्द प्रयोगों के रहने पर भी काव्य भाषा सरल नहीं हो सकती, इनकी उपस्थिति से काव्य की भाषा दुरुह या कृत्रिम होती जाती है। काव्य में माधुर्य आ सकता है, सरलता नहीं । अलंकार प्रधान भाषा-शैली एवं पूर्णतः संस्कृत समास वृत्तों के द्वारा महाकाव्य में हरिओध जी की शैली का सफल अनुकरण किये जाने पर भी विशाल मात्रा में अपरिचित शब्द प्रयोग के कारण सामान्यतः रसानुभूति प्राप्त करने में कठिनाई रहती है।
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इससे विपरीत कवि मूलदास के 'वीरायण' महाकाव्य में भाषा की सरलता कहीं-कहीं उस कोटि तक पहुँच जाती है कि भाषा में महाकाव्योचित गरिमा और गहराई न रहकर ग्रामीणता आ जाती है। तुलसीदास की अवधी का अनुकरण इसमें किया गया है, लेकिन 'रामचरित मानस' - सी शुद्ध कलापूर्ण तथा व्यंजनात्मक भाषा का प्रयोग न होकर गुजराती, राजस्थानी, ब्रज और अवधी का मिश्रित रूप लक्षित होता है। सौराष्ट्र के गांवों की बोली का प्रभाव
1. डा० लालताप्रसाद सक्सैना - हिन्दी महाकाव्यों में वैज्ञानिक तत्त्व, पृ० 98, 99. डा॰ नेमिचन्द्र शास्त्री-हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन - भाग-2, पृ० 22.
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