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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
ऐसे हैं, जो उस आलोचना की परवाह न कर अपने जीवन की डायरी यथार्थ रूप में निर्भय और निधड़क हो प्रस्तुत कर सके। मेरी जीवनगाथा :
वर्णी जी की यह गाथा औपन्यासिक शैली में लिखी गई है, जिसमें उपन्यास की तरह जीवन के निकट का सत्य तथा जीवन की मार्मिक घटनाओं
को यथार्थ रूप में प्रस्तुत करने की रोचक शैली का स्वतः निर्वाह हुआ है। 'वर्णी जी ने अपना आत्म चरित लिखकर जहाँ एक ओर जैन समाज का उपकार किया है, वहाँ हिन्दी के भंडार को भी भरा है। एतदर्थ वे बधाई के पात्र हैं।' पं० गणेशप्रसाद वर्णी जी ने अपनी आत्मकथा में अपनी कमजोरी हठाग्रह आदि को स्वीकार करके जिनसे भेंट मुलाकात हुई, उनके सम्बंधों में भी सच्चाई से जो अनुभव हुआ, उस सबको व्यक्त किया है। जीवन की व्यावहारिक दार्शनिकता, जैन धर्म की दार्शनिकता, विशेषता, जैन समाज की सामाजिक, धार्मिक परिस्थितियों का तादृश्य चित्रण इसमें हमें प्राप्त होता है। वर्णी जी ने यह आत्म कथा लिखकर जैन समाज का ही नहीं, अपितु हिन्दी साहित्य का भी महती उपकार किया है। इस जीवनी के महत्व पर प्रकाश डालते हुए संपादकीय वक्तव्य में लिखा गया है-'पूज्य वर्णी जी द्वारा लिखी गई यह 'मेरी जीवन गाथा' केवल उनकी अपनी ही जीवनी नहीं है, अपितु वह समाज का 50 वर्षों का ज्वलन्त इतिहास है। इसमें प्रत्यक्षीकृत मार्मिक घटनाओं, सामाजिक प्रवृत्तियों और जीवन-सुधार के हृदयस्पर्शी सूत्रों का ग्रथन है। इसे कितने ही लोग हिन्दी 'पद्मपुराण' कहते हैं, निःसंदेह यह 'पद्मपुराण' की तरह जीवन निर्माण के लिए पढ़ने योग्य है।
पूरी आत्मकथा में हम वर्णी जी के जीवन की सुंदर, असुंदर सामान्य महत्वपूर्ण, प्रकाश-अंधकार, अच्छाई-बुराई युक्त घटनाओं को उनकी संपूर्ण सच्चाई के साथ देख पाते हैं। कहीं भी उन्होंने कुछ छिपाने की न कोशिश की है, न संकोचवश कुछ छोड़ा है। कठोर परिश्रम व्रत एवं स्वाध्याय व सादगीपूर्ण जिन्दगी को उसके सही स्वरूप में पाठक के सामने खुली किताब की तरह खोल दिया है, पाठक को जो कुछ समझना या स्वीकार करना हो, उस पर छोड़ दिया है। घटनाएं एवं पात्रों के परिचय इतने रोचक हैं कि कथा की तरह छोडते नहीं बनता। सरल तथा रोचक शैली आत्मकथा का प्राण है, जिससे यह नीरसता से बच जाती है और सब उसमें समान भाव से रसानुभूति का आनंद ग्रहण कर
1. डा० नेमिचन्द्र जी : हिन्दी जैन साहित्य का परिशीलन, पृ. 130. 2. मेरी जीवन गाथा-प्रस्तावना, द्वारकाप्रसार मिश्रा