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आधुनिक हिन्दी - जैन साहित्य
बाबू सूरजमल और महात्मा भगवानदीन। इस स्तंभ के लेखकों में नाथूराम प्रेमी, श्री कन्हैयालाल मिश्र, भगवानदीन, गुलाबराय श्री अजितप्रसाद, श्री कामता प्रसाद, श्री कौशलप्रसाद जैन, श्री दौलतराय मिश्र, श्री जैनेन्द्रकुमार और श्री गोलीय जी हैं। जिस प्रकार प्रयाग में त्रिवेणी के संगम स्थल पर गंगा, यमुना और सरस्वती की भिन्न-भिन्न धाराएं एक में मिल जाती हैं और पवित्र संगम स्थल का निर्माण करती हैं, उसी प्रकार भिन्न-भिन्न लेखकों की पृथक्-पृथक् शैली इस एक संस्करण में मिल त्रिवेणी सी पवित्रता व माधुर्य का वातावरण पैदा करती है । भिन्नता में प्रवाह - ऐक्य यहाँ मौजूद है। इस स्तंभ के लेखकों ने अपने संस्मरणों के द्वारा मानो मंदिर के द्वार पर खड़े पुजारी की-सी नम्रता एवं भक्ति भावना से पंचामृत का रसास्वादन किया है और पाठकों को करवाया हैं।
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चतुर्थ भाग श्रद्धा और समृद्धि के ज्योति रत्नों से जगमगा रहा है - वे रत्न हैं - राजा हरसुखराय, सेठ सुगभचन्द्र, राजा लक्ष्मणप्रसाद, सेठ माणिक चन्द, महिला रत्न भगनबाई, सेठ देवकुमार सेठ जम्बूप्रसाद, सेठ मथुरादास, सर मोतीसागर, रा० ब० जुगमंदिरलाल, रा० ब० सुल्तान सिंह और सर सेठ हुकुमचन्द । इनके संस्मरणों के आलेखनकर्त्ता हैं - गोयलीय जी, प्रेमी जी, नेमिचन्द्र शास्त्री, जैनेन्द्र कुमार पं॰ कैलाशचन्द्र, कन्हैयालाल मिश्र, तथा कामताप्रसाद जैन आदि। सभी आधुनिक हिन्दी जैन साहित्य के प्रसिद्ध विद्वान् निबंधकार हैं। इस संकलन की विशिष्टता, उपादेयता, महत्ता व उत्कृष्टता के सम्बंध में साहित्यिक शैली में नेमिचन्द्र जी-जो स्वयं भी इसके एक प्रमुख लेखक हैं - लिखते हैं- ' सचमुच में यह संकलन बीसवीं शताब्दी के जैन समाज का जीता-जागता एक चित्र है। समस्त पुस्तक के संस्मरण रोचक प्रभावक और शिक्षाप्रद हैं। इस संग्रह के संस्मरणों को पढ़ते समय अनेक तीथों में स्नान करने का अवसर प्राप्त होगा । कहीं राजगृह के गर्मजल के झरनों में अवगाहन करना पड़ेगा, तो कहीं-कहीं के समशीतोष्ण ब्रह्म-कुण्ड के जल में, तो कहीं पास ही के सुशीतल जल के झरने में निमज्जन करना होगा। आपको गंगाजल के साथ खारा उदक भी पान करने को मिलेगा, पर विश्वास रखिए, स्वाद बिगड़ने न पायेगा । "
इस संकलन में बीसवीं शताब्दी के दिवंगत और वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध, प्रमुख दिगम्बर जैन कार्यकर्ताओं के संस्मरण व परिचय दिया गया है, जो निरन्तर लोकोपयोगी कार्य एवं जैन समाज के जागरण तथा उन्नति में किसी न किसी प्रकार सहयोग देते रहे हैं। "जैन जागरण के अग्रदूत अपनी दिशा में इन धुंधले और मिटे जा रहे पथ चिह्नों को श्रद्धा से, श्रम से, सतर्कता से समेटकर
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डा॰ नेमिचन्द्र जी : हिन्दी जैन साहित्य का परिशीलन, पृ० 144.