Book Title: Aadhunik Hindi Jain Sahitya
Author(s): Saroj K Vora
Publisher: Bharatiya Kala Prakashan

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Page 423
________________ आधुनिक हिन्दी-जैन-काव्य का कला-सौष्ठव 399 भावों की अभिव्यक्ति सरलता से कर पाता है। वैसे आजकल बिना छन्द या मुक्त छन्द की कविता का प्रवाह बहता है लेकिन उन सभी में वह प्रेषणीयता व आकर्षकता नहीं रहती, जो पाठक के हृदय को स्वतः अपनी ओर आकृष्ट करे। प्रवाह में बहाकर आलोकित कर पायें। जिस प्रकार नदी के स्वाभाविक प्रवाह को तीव्र और गतिशील बनाने के लिए पक्के घाटों की आवश्यकता रहती है, उसी प्रकार भावनाओं और अनुभूतियों को प्रभावोत्पादक बनाने के लिए छन्दों की आवश्यकता काव्य में महसूस की जाती है। भाषा के लाक्षणिक प्रवाह के लिए भी छन्द का बंधन अनिवार्य-सा रहता है। छन्दबद्ध रचनाएं स्मृति-पटल पर जल्दी से अंकित हो जाती हैं। छन्द की आवश्यकता व महत्ता पर अपने विचार व्यक्त करते हुए डा. नेमिचन्द्र शास्त्री लिखते हैं-"साहित्यकार लय और छन्द के माध्यम से अपनी अनुभूतियों की अचल तन्मयता में एकात्म अनुभव की भावना में विभोर हो कला को चिरन्तन प्राण तत्व का स्पर्श कराता है। अतएव छन्द कवि के अन्तर्जगत की वह अभिव्यक्ति है, जिस पर नियम अकुशल नहीं रखा जा सकता, फिर भी भिन्न-भिन्न स्वाभाविक अभिव्यक्ति के लिए स्वर के आरोह और अवरोह की परम आवश्यकता है। स्पंदन कंपन और धमनियों में रक्तोष्ण का संचार लय और छन्द के द्वारा ही संभव है। + + + चुस्त भावनाओं की अभिव्यंजना के लिए यह विधान उतना ही आवश्यक है, जितना शरीर के स्वरयंत्र को शक्तिशाली बनाने के लिए उच्चारणोपयोगी अवयवों का सशक्त रहना।"" आचार्य रामचन्द्र शुक्ल छन्दों की विशेषता पर प्रकाश डालते हुए उचित ही लिखते हैं कि "छन्द वास्तव में बंधी हुई लय के भीतर भिन्न-भिन्न ढांचों का (Patterns) योग है, जो निर्दिष्ट लंबाई का होता है। लय सवर के चढ़ाव-उतार के छोटे-मोटे ढांचे ही हैं जो किसी छन्द के चरण के भीतर व्यस्त रहते हैं। + + + छन्द के बंधन के सर्वथा त्याग में हमें तो अनुभूतनाद-सौंदर्य की प्रेषणीयता का (Comunicability of Sand impulse) प्रत्यक्ष लाभ दिखाई पड़ता है। हाँ, नये-नये छन्दों के विधान को हम अवश्य अच्छा समझते हैं। अलंकार के अतिरिक्त काव्य के रूप निर्माण के लिए छन्द-संगती की आवश्यकता बनी रहती है। छन्द काव्य की गति है, प्रवाह है। अलंकार : जिस प्रकार काव्य को चिरन्तन बनाने के लिए उत्कट गहरे भावों की 1. डा० नेमिचन्द्र जी : हिन्दी जैन साहित्य का परिशीलन, पृ. 154, 155. 2. आचार्य राचन्द्र शुक्ल-चिन्तामणि-भाग-2, पृ. 143. 'काव्य में रहस्यवाद' निबंध।

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