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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
इस प्रकार बाबू बालचन्द्र जैन ने पौराणिक आख्थानों में जान डालकर सभी कहानियों को रोचक बनाया है। श्री नेमिचन्द्र जैन इन कहानियों की विशेषता पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं-'प्लोट, चरित्र और दृश्यावलि (Back Ground) की अपेक्षा से इस संग्रह की कहानियों में लेखक बहुत अंशों में सफल हुआ है, किन्तु स्थिति को प्रोत्साहन देने और कहानियों को तीव्रतम स्थिति में पहुँचाने में लेखक असफल रहा है और उत्सुकता का गुण भी पूर्ण रूप से इन कहानियों में न ही आ सका है। कल्पना और भाव का संमोहक सामंजस्य करने का प्रयास लेखक ने किया है, पर पूर्ण सफलता नहीं मिल सकी है।
प्रो. महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य की चार-पाँच कहानियाँ 'ज्ञानोदय' में प्रकाशित हुई हैं, जिनमें रमण प्रभाचन्द्र, जटिल मुनि और बहुरूपिया अच्छी कहानियाँ कही जाएंगी। वैसे इनमें टेकनीक का सर्वथा अभाव है। कहानी के लिए परम आवश्यक गुण का भी पूर्ण निर्वाह नहीं हो पाया है। तथा कथा के प्रवाह में भी बीच-बीच में संस्कृत के श्लोक आने से शिथिलता आ गई है-फिर भी इनका आरंभ अच्छा रहा है। तीव्रतम परिस्थिति एवं कलात्मक अन्त का सर्वत्र होने पर भी धार्मिकता व मार्मिकता के कारण कहानियाँ अच्छी हैं।
'मोक्षमार्ग की सच्ची कहानियाँ' नामक कथा संग्रह में पं० बुद्धिलाल जी जैन ने छोटी-छोटी धार्मिक कहानियाँ लिखी है। इसमें सत्य, प्रेम, अहिंसा, दानधर्म आदि का महात्म्य वर्णित किया गया है। उपदेशात्मकता के साथ-साथ मनोरंजन भी इअन कथाओं से प्राप्त होता है कथा की रोचकता के कारण उपदेशात्मक वृत्ति नीरसता पैदा नहीं होने देती है। पुरानी शैली की इन कहानियों की भाषा शुद्ध खड़ी बोली है।
स्व भगवत् स्वरूप जैन 'भगवत्' भी आधुनिक जैन साहित्य के प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय कलाकार हैं। उन्होंने काफी परिमाण में साहित्य सृजन किया है। कहानीकार के रूप में वे विशेष प्रसिद्ध हुए हैं। मानवी, दुर्गद्वार, विश्वासघात, रसभरी, उस दिन, पारस और पत्थर, मिलन आदि उनके प्रमुख सुन्दर कहानी-संग्रह हैं। सभी संग्रहों की कहानियाँ पौराणिक कथा वस्तु पर आधारित हैं, फिर भी रोचक कथावस्तु व सर्वथा नूतन भाषा शैली, कहानी कला के तत्त्वों के कारण रसभोग्य बनने में सफल रही हैं। भगवत जी भी अपने उद्देश्य में काफी अंश तक सफल हुए हैं। रसात्मकता, जिज्ञासा पूर्ति और आचार-विचार, दर्शन सम्बंधी आदर्श तत्त्वों का कथाओं में परोक्ष रूप से निरूपण किया गया 1. डा० नेमिचन्द्र जी : हिन्दी जैन साहित्य का परिशीलन, पृ० 98.