________________ आधुनिक हिन्दी-जैन-गद्य साहित्य : विधाएँ और विषय-वस्तु 369 करना। अब स्वाध्याय का अर्थ हुआ अपने को पढ़ना, अपने को जगाना और अपनी जानकारी हासिल करना। आज स्वाध्याय के नाम पर जो कुछ हो रहा है वह सब पराध्याय है। वैसे इस कथन के मुताबिक लेखक के इस ग्रन्थ को भी नहीं पढ़ना चाहिए, क्योंकि इसमें लेखक के ही अनुभव, विचार, तर्क या सिद्धान्त की चर्चा होगी, अर्थात् 'पर' की अनुभूतियों को पढ़ना होगा। लेकिन सभी के वश की बात तो यह नहीं हो सकती कि सभी अपने अनुभवों को ही लिखें पढ़ें। कभी दूसरों के ग्रन्थों को पढ़ने से भी लाभान्वित हम होते हैं, दृष्टि विशाल एवं ज्ञान वृद्धि होती है। निबंधकार की भाषा शैली अत्यन्त सरल है। गूढ विचारों एवं भावों को भी उन्होंने सरल भाषा, छोटे-छोटे वाक्यों, दृष्टान्तों के द्वारा स्पष्ट करने की कोशिश की है। लेखक ही विद्वता सर्वत्र दृष्टिगोचर होती है, लेकिन ज्ञान व विद्वता का आडम्बर कहीं दृष्टिगत नहीं होता है। __ श्री अगरचन्द जी नाहटा प्रतिभा संपन्न ज्ञानवृद्ध साहित्यकार हैं। आपने कवियों के जीवन, उनके राज्याश्रय, जैन ग्रंथों पर परिचयात्मक तथा संशोधनात्मक असंख्य लेख लिख कर जैन साहित्य पर महती उपकार किया है। अनेक अज्ञात कवियों को आपकी लेखनी प्रकाश में लाने में समर्थ हुई है। जैन एवं जैनेतर कोई भी पत्र-पत्रिका ऐसी न होगी, जिसमें आपका कोई निबंध प्रकाशित न हुआ हो। हिन्दी साहित्य के विवादात्मक प्रश्नों को सुलझाने में आपके निबंधों का श्रेयष्कर योगदान है। 'पृथ्वीराज रासो' के विवाद का अन्त आपके महत्वपूर्ण निबंध के द्वारा ही हुआ है। साहित्यिक, सामाजिक एवं दार्शनिक सभी विषयों पर आपने विद्वतापूर्ण कलम चलाई है। आप हिन्दी साहित्य के भी प्रसिद्ध विद्वान हैं, आज के नये साहित्यकारों को सदैव आपसे सहायता व प्रेरणा प्राप्त होती रहती है। आपके निजी विशाल ग्रन्थागार तथा अनेक हस्तलिखित ग्रन्थों से आपका अध्यवसाय, संशोधन, साहित्यिक अभिरुचि एवं सर्जनात्मक शक्ति का परिचय प्राप्त होता है। श्रीयुत् लक्ष्मीचन्द्र जैन एक कुशल संपादक के साथ-साथ विद्वान निबंधकार के रूप में भी प्रसिद्ध हैं। भारतीय ज्ञानपीठ के संपादकीय वक्तव्यों में अनेक साहित्यिक चर्चा उन्होंने की है। महाकाव्य 'वर्द्धमान' व उपन्यास 'मुक्तिदूत' का संपादकीय विवेचन तो महत्वपूर्ण है ही, साथ में वैदिक साहित्य की प्रस्तावना एक नया प्रकाश विकीर्ण करती हैं। आपने सफल निबंधकार के साथ-साथ सहृदयी आलोचक का कर्तव्य अच्छी तरह से निभाया है। आपकी शैली श्लिष्ट, साहित्यिक तथा प्रभावशाली है। गद्य भी आपका उत्कृष्ट कोटि का है, निबंध में धारावाहिकता सर्वत्र पाई जाती है। 1. भगवानदीन-स्वाध्याय-प्रकाशकीय वक्तव्य, पृ. 1.