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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
जाकर गाढ़े पसीने की कमाई से रत्न खरीद कर थोड़े समय के लिए मोहवश, स्वार्थ के चक्कर में पड़ते हैं, लेकिन धन को ही ऐसे कुचक्र का मूल समझ रत्न को फेंक फिर से स्नेहपूर्वक पूरा परिवार रहता है।
'उपरम्मा' में रावण के एक दूसरे पहलू पर प्रकाश डाला गया है। जैन साहित्य में रावण को जैन धर्मानुयायी बताकर उसके अच्छे अंगों को विशेष उजागर किया है। उपरम्मा जैसा अत्यन्त सुन्दर परस्त्री को स्वेच्छा से त्याग दिया
और परपुरुषगमन रूप जघन्य पाप को प्रदर्शित किया। वरना रानी उपरम्मा रावण के प्रति आसक्त होकर स्वयं आत्म समर्पण करने गई थी। रावण से प्रतिबोध पाकर उसका हृदय आत्मग्लानि से भर गया। उसने महसूस यिा कि 'रावण कितना महान है, कितना उच्च है, वह पुरुष नहीं, पुरुषोत्तम है. वंदनीय है!!!
'आत्म समर्पण' में सच्चे विराग की महिमा बताई गई है क्योंकि वासना युक्त विराग दम्भ है। विराग का कलंक हैं। जबकि ईच्छा शक्ति एवं वासना से मुक्त चित्त-शक्ति से प्राप्त वैराग्य सच्चा संयम है। शुभचन्द्र और भर्तृहरि दोनों वैराग्य के पथ पर चल दिए। संभवतः आत्म विकास के लिए शुभचन्द्र की आध्यात्मिकता ने एक मौका दिया, जिससे वह तेजस्वी राजपुत्र न रहकर थोड़े ही समय में परम शान्ति वैराग्य मण्डित दिगम्बर साधु की श्रेणी में जा बैठे और माया-मोह को छोड़; परम वैरागी बन गए। जबकि भतृहरि ने तपस्वीराज नामक साधु की 12 वर्ष कठिन सेवा करके जंत्र, तंत्र, मंत्र एवं अन्य विधाएँ प्राप्त की
और फिर गुरु की इजाजत लेकर शिष्य समुदाय के साथ आश्रम बनाकर रहे एवं भैया को खोज कर निर्धन भैया को 'कलंकरस' नामक औषधि भेजी, जो ताम्बे को सोना बना सकती थी लेकिन निर्मोही शुभचन्द ने पत्थर पर लुढ़का दी। उसके लिए तो पारस पत्थर समान था। स्वयं भर्तृहरि द्वारा लाए गए आधे रस को पुनः फेंक देने पर भर्तृहरि को भाई की मति व व्यवहार पर क्षोभ और गुस्सा आता है। उस पर शुभचन्द्र पवित्र उपदेश देते हुए कहते हैं, 'भर्तृहरि! तुम विराग के लिए यहाँ आए थे। धन-दौलत, मान-सम्मान और राज्य लक्ष्मी को ठुकराकर। मैं देख रहा हूँ कि सोने के लोभ को यहाँ आकर भी तुम नहीं छोड़ सके हो। आज भी तुममें कलंक बाकी है। इतने वर्ष बिताकर भी विराग की पवित्रता को मलिन करने क्यों आए हो? इसे विराग नहीं, दम्भ कहते हैं भोले प्राणी। भर्तृहरि की आँखों से दम्भ का, मोह का पर्दा खिसक कर सच्चे वैराग्य की पावन ज्योति दीप्त हो उठती है। वह भैया के चरणों में गिर जाता है। 1. स्व० भगवतस्वरूप : उस दिन-आत्मसमर्पण-कहानी, पृ० 67.