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आधुनिक हिन्दी - जैन- गद्य साहित्य : विधाएँ और विषय-वस्तु
हैं, जो अन्यत्र पाना कठिन है। चित्रबद्धता, भावों की तीव्रता व दार्शनिकता का गांभीर्य उनके साहित्य को ऊपर उठाने में बहुत हद तक सहायक हुए हैं।
'बाहुबली' और 'विद्युत् चोर' उनकी दो प्रमुख कथाएँ जैन साहित्य की अमूल्य निधि हैं। वैसे उनका पूरा साहित्य जैन दर्शन की विचारधारा से प्रेरित हैं। उपरोक्त दोनों कथाओं में कहानी कला के सभी तत्त्वों के पूर्ण संनिवेश के साथ दार्शनिकता का रोचक उद्घाटन किया गया है। पात्रों का चरित्र-चित्रण भी मनोवैज्ञानिक ढंग से किया गया है। कथाओं का उद्देश्य पात्रों की भाव-भंगिमा स्वगत कथन एवं कथोपकथन के द्वारा व्यक्त होता है, साथ ही कथानक को भी गति मिलती है। 'बाहुबली' का चरित्र जैन साहित्य में अत्यन्त लोकप्रिय व श्रद्धा का पात्र रहा है। जैन धर्म, समाज व साहित्य में भरत चक्रवर्ती एवं बाहुबली के तीन प्रकार के युद्ध की कथा अत्यन्त प्रसिद्ध है, जिसमें तीन युद्धों में विजय प्राप्त होने के समय ही सांसारिक संबंध एवं राग-द्वेष से घृणा उत्पन्न हो जाने से ऊँचे किए गए अपने हाथों से वीर बाहुबली अपने ही बालों को नोंचकर संसार त्याग करते हैं और तपस्या के लिए जंगल में चले जाते हैं। प्रतिभा संपन्न, वीर, सुयोग्य राज्य - व्यवस्थापक एवं उदात्त चरित्र वाले उन्होंने जगत् के सर्वसुखों को निमिषमात्र में त्याग तो दिया लेकिन अहंकार का एक अंश अभी तक जीवित रह गया था। उनकों अपने पिता तीर्थंकर ऋषभदेव के साथ दीक्षित हुए अपने निन्यानवें (99) छोटे भाइयों को पूर्वानुगामी स्वीकार कर वंदन करने के लिए जाने में झिझक थी, और तब तक 'केवल ज्ञान' प्राप्त न होने का कारण जानकर अपने महाप्रतापी भाई बाहुबली को अहंकार रूपी गज से नीचे उतरने का साध्वी बहनें प्रतिबोध देती हैं। क्षणमात्र में अहंकार का पर्दा हटते ही 'केवल ज्ञान' की परम सिद्धि प्राप्त होती है।
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इस प्रकार पौराणिक कथानक को ग्रहण करने पर भी कथा में उत्सुकता, चरित्रों का मानसिक विश्लेषण, कथानक में गति एवं वैराग्य की सुन्दर विचारधारा कुशलता से व्यक्त की गई है। " बाहुबली कथा में बाहुबली के चरित्र का विश्लेषण बहुत सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक रूप से हुआ है। इसमें उस समय की परम्परा और सामाजिक विश्वासों की स्पष्ट झांकी विद्यमान है । " "
'विद्युच्चर' की कथा भी अत्यन्त रोचक है। पौराणिक कथा वस्तु में लेखक ने अपनी कल्पना के रंगों से सुन्दर कथा वस्तु की सृष्टि की है, जिसमें विद्युच्चर के मनोभावों को सूक्ष्मता से व्यक्त किया गया है। विद्युच्चर तथा राजवी पिता के संवाद में कथानक को आगे बढ़ाने की शक्ति के उपरान्त पात्रों के विचारों की तीव्रता व जनतंत्र का समर्थन भी प्राप्त होता है।
1.
डा० नेमिचन्द्र जी : हिन्दी जैन साहित्य का परिशीलन, पृ० 10.