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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
एक दूसरे के लिए प्यार है, तब तक इंसानियत का सम्मान नहीं घट सकता। (पृ. 30)
कवि की वाणी में कितना यथार्थ व्यंग्य टपकता है। कवि धूर्त पाखण्डी भक्तों की खिल्ली उड़ाते हुए कहते हैं।
मुझे अपनी आँखों पर विश्वास न हुआ, जब मैंने देखा, कि मंदिर के दालान में बैठे भक्त लोग, बड़े ऊँचे स्वर में राम-धुन गा रहे हैं जब कि उधर मंदिर के पिछले दरवाजे से भगवान उल्टे पैरों भागे जा रहे हैं, चरण छूकर, कांपते हुए पूछा मैंने भगवन्! आपका यह क्या हाल? तो उन्होंने हाफते-हाफते कहागेको मत मुझे, यहाँ अधिक नहीं ठहर सकता अब मैं, इन लोगों ने बिछा रखा है मेरे लिए पग-पग पर जाल। (पृ. 43)
कवि को संसार व सांसारिक रिश्ते असार-असत्य महसूस होता है, क्योंकि
जीवन सपना है, सब कुछ पराया है, कौन अपना है और फिर यह मन इस संसार से ऊब जाता है जैसे कि दिन भर आग बरसाने वाला सूरज
सांझ को डूब जाता है। (पृ. 23) किसी से कुछ उधार लेकर इठलाने की वृत्ति पर कवि व्यंग्य करते हैं
बझाई हुई रोशनी से रोशन चाँद की सर्प-भरी चाल पर देखों तो सही ये सितारे कितने हंस रहे हैं।
अब तो ऐसा लग रहा है कि जो बाहर से जितना अधिक चमकता है, वह भीतर उतना ही अधिक कालापन लिये है। (पृ. 3)