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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
अभिव्यंजना करने के लिए जिस प्रवाहपूर्ण भाषा की आवश्यकता रहती है, इसका यहाँ अभाव है। हाँ, कथोपकथन से पात्रों के चरित्र-चित्रण और कथा के विकास में पर्याप्त सहायता मिली है। जब महारथ अपनी पुत्री मनोवती से कहता है कि इस नियम का कदाचित निर्वाह न हो, क्योंकि जब तक तूं हमारे घर में हैं, तब तक तो सब कुछ हो सकता है, परन्तु ससुराल जाने पर अड़चन पड़ेगी। मनोवती उस समय निर्भीक और नि:संकोच होकर उत्तर देती है-जो उस समय स्थिति देखते हुए कुछ खटकता-सा है। सामान्य रूप से कथोपथन स्वाभाविक और मर्यादा युक्त है। भाषा-शैली :
इस उपन्यास की भाषा, प्रारंभिक युग की होने के कारण साहित्यिक गरिमा से मंडित न होकर सरल बोलचाल की भाषा है। अनेक स्थानों पर लिंग-दोष विद्यमान है। जहाँ एक ओर तड़की, सुनहरी, चौपरे, जोति, दिखो आदि देशी शब्द पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं, वहाँ खातिरदारी, हासिल, हताश, आफताब, मुराद, महताब, फसाद आदि उर्दू के शब्दों की भी भरमार है। इसके अलावा भोजपुरी भाषा का प्रभाव भी इनकी भाषा पर परिलक्षित होता है-फिर भी बोलचाल की भाषा होने के कारण शैली में सरलता आ गई है। यद्यपि औपन्यासिक तत्त्वों की कसौटी पर यह खरा नहीं उतरता है, पर प्रयोगकालीन रचना होने के कारण इसका महत्त्व है। “हिन्दी उपन्यासों की गतिविधि को अवगत करने के लिए इसका महत्त्वं 'चन्द्रकान्ता संतति' से कम नहीं है।'
श्री जैनेन्द्र किशोर ने कमलिनी, सत्यवती, सुकुमाल, मनोरमा और शरदकुमारी ये पाँच उपन्यासों की भी रचना की है, लेकिन आज ये अनुपलब्ध हैं। एक 'सुकुमाल' की प्राचीन प्रति कहीं-कहीं प्राप्त होती है। सभी उपन्यासों में धर्म और सदाचार की महत्ता अभिव्यक्त करने वाली पुरातन कथावस्तु ग्रहण की गई है। प्रारंभिक रचना होने से उसमें औपन्यासिक कला का विकास नहीं हुआ है। सुकुमाल :
जैनेन्द्रकिशोर जी ने इस छोटे उपन्यास की रचना ई. 1905 में की थी, जब हिन्दी साहित्य ने इतिहास में भी उपन्यासों का प्रारंभिक युग ही चल रहा
था। इसके उपोद्धान. में लेखक ने स्वयं ही लिखा है कि इस उपन्यास में न तो 'प्रेमी तथा प्रेयसी की रसभरी कहानी है और न इसमें तिलिस्म तथा ऐयासी के झटके हैं। यह उपन्यास केवल पापों का निराकरण कर शिवरमणी (मुक्ति) से 1. डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री : हिन्दी जैन साहित्य का परिशीलन, पृ. 61.