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आधुनिक हिन्दी-जैन-गद्य साहित्य : विधाएँ और विषय-वस्तु
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सकती है। श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन ने प्रस्तावना में इसके उद्देश्य पर विचार व्यक्त करते हुए लिखा है कि-"आज की विकल मानवता के लिए 'मुक्तिदूत' स्वयं 'मुक्तिदूत' है। इसके पात्रों को प्रतीक रूप में रखा गया है। अंजना प्रकृति की प्रतीक है, पवनंजय पुरुष का और उसका अंहभाव माया का और हनूमन ब्रह्म का है। आज का मनुष्य अपने अहं के कारण स्वयं को बुद्धिशाली और शक्तिमान समझ विज्ञान की उत्पत्ति द्वारा प्रकृति पर विजय मनाना चाहता है। ऐसे नाकाम प्रयत्नों में वह उन्मत्त-सा घूमता-फिरता रहता है, पर उसे विजय नहीं हासिल होती क्योंकि प्रकृति दुर्जेय है। तभी उसे शक्ति-सुख मिल पाता है, जब वह सुखों की अच्छी कल्पना का मोह त्यागकर प्रकृति की महत्ता स्वीकार कर उसकी शरण में अहंभाव विसर्जित कर देता है, तभी वह महान बन सकता हैं, सच्चे सुख का भागी बन सकता है। प्रकृति पुरुष के क्षुब्ध विकल मन से किए जाते भौतिक कार्य-कलापों से शोकाकुल है तथा पुरुष की अल्प शक्ति का परिहास करती हुई कहती है-पुरुष (मनुष्य) सदा नारी (प्रकृति) के निकट बालक है। भटका हुआ बालक अवश्य एक दिन लौट आयेगा।" सचमुच ऐसा ही होता है कि मनुष्य जब भौतिक सुखों की प्राप्ति के संघर्षों से थक जाता है, अकुला जाता है, तब प्रकृति की महत्ता से परिचित होकर उसकी आनन्ददायक गोद में जाकर संतृप्ति प्राप्त करता है। सौंदर्य और मृदुता की अक्षयनिधि-प्रकृति उसे अपने सुकोमल अंक में अमृतमयी शान्ति का आनन्द देती है, तब मानव के समक्ष मानवता का सही रूप प्रकट होता है। मानव को प्रकृति द्वारा प्रेरित होकर अहिंसक बनने की आवश्यकता पर लेखक ने जोर देते हुए कहा हैं कि अहिंसा के द्वारा युद्ध को रोका जा सकता है। मनुष्य अहिंसा को स्वीकार कर जब पुनः प्रकृति के समीप जाता है तो उसे हनूमन रूपी ब्रह्म (आत्म शुद्धि) की प्राप्ति होती है। हर्षावेश में 'प्रकृति पुरुष में लीन हो गई और पुरुष प्रकृति में व्यक्त हो उठा। जिससे प्रकृति की सहज सहायता से पुरुष का ब्रह्म के साथ सदा सम्बन्ध बना रहे। पुरुष व प्रकृति के मिलन की शीतल अमीधारा से चारों ओर शान्ति-सुख के शतदल खिल उठते हैं। आज की व्यस्त मानवता रूपी दानवता के लिए यही मूल मंत्र है कि वह विज्ञान के विनाशकारी आविष्कारों का अंचल छोड़कर सृजनमयी चिदानन्दमयी प्रकृति को पहचानेगा, तभी उसे परम शान्ति की प्राप्ति होगी और विश्व में मानवता की चिरवृद्धि होगी। प्रसाद का 'कामायनी' महाकाव्य भी क्या हमें यही संदेश नहीं देता? 'कामायनी' की अनुपम वात्सल्यमयी त्यागी श्रद्धा मनु की ईष्या, अहंजन्य विकार, अन्य वृत्ति-प्रवृत्तियों का प्रेम और सहृदयता से परिष्कार कर अनन्त