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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
थे। राजा यथासंभव क्षत्रिय धर्म का पालन करते थे। शरणागत की रक्षा करना परम धर्म समझते थे, और नि:शस्त्र पर हाथ उठाना क्षत्रित्व का अपमान समझते थे। राजा और सेठ साहूकार अतुल संपत्ति के स्वामी होते थे। साधारणतया लोग खुशहाल थे, परन्तु दरिद्रता का अभाव नहीं था। दास प्रथा मौजूद थी, स्त्रियों की दशा बहुत अच्छी न थी। ऋणादि चुका न सकने के कारण दासवृत्ति अंगीकार करनी पडती थी। वेश्याएँ नगरी की शोभा मानी जाती थीं। व्यापार बहुत तरक्की पर था। व्यापारी लोग दूर-दूर तक अपना माल लेकर बेचने जाते
(3) तीसरा विभाग धार्मिक है, जिसमें 14 कहानियाँ हैं। इनमें प्रायः श्रमण भगवान महावीर के निर्ग्रन्थ धर्म का प्रतिपादन किया गया है। धर्म प्रचार की दृष्टि से कहानियाँ काफी महत्त्वपूर्ण हैं। 'जिनदत्त का कौशल' जैन व बौद्ध दोनों धर्म में पाई जाती हैं। चण्डाल पुत्रों की कहानी से पता चलता है कि बुद्ध और महावीर के जातिवाद के विरुद्ध घोर प्रचार के बावजूद भी समाज में शूद्र और अशूद्र की भावना का नाश नहीं हुआ था। स्पष्ट है कि महावीर के धर्म में जाति-पांति के लिए कोई स्थान न था। दीपायन ऋषि की कथा 'काण्ड दीपायन जातक' में भी आती है। कपिल मुनि 'धार्मिक साहित्य का एक सुन्दर उपास्थन कहा जा सकता है।
डा. जगदीश चन्द्र जी ने इन प्राचीन धार्मिक कथानकों को नयी भाषा शैली में रोचकता के साथ प्रस्तुत करके जैन ग्रंथों की कितनी ही महत्त्वपूर्ण अज्ञात कथाओं को प्रकाशित किया है। वे कथाएँ रोचक व ज्ञानबर्द्धक हैं। इनके माध्यम से आचार, व्यवहार, प्रथा परम्परा व नीति धर्म का ही बोध नहीं, जीवन-जगत और अध्यात्म तक का ज्ञान लोक जीवन में व्याप्त किया गया है। आख्यान छोटे-छोटे पर प्रभावपूर्ण एवं मर्मस्पर्शी हैं, जिनसे प्रेरणा प्राप्त होती है। लौकिक कथाएँ ऐतिहासिक न होते हुए भी जन साहित्य में प्रिय और प्रचलित हैं। ऐतिहासिक कथानकों को समय की सत्यता का आधार व सर्मथन प्राप्त है, जबकि धार्मिक कहानियों में लौकिकता तथा ऐतिहासिकता के सम्मिश्रण के साथ-साथ भिन्न धर्म की पीठिका भी प्राप्त है। लौकिक कहानियों की संख्या अधिक है। चावल के पाँच दाने की कथा हमारे समाज के काफी जानी पहचानी है, जिसमें ससुर के द्वारा की गई परीक्षा में छोटी बहू रोहिणी को सफल होने से घर की मालकिन बनाने की कथा है। भील और ब्राह्मण शिवभक्त की कथा, घण्टीवाले गीदड़ की कथा, माकन्दी पुत्रों की कथा आदि 1. डा. जगदीशचन्द्र जैन : दो हजार वर्ष पुरानी कहानियां, प्रस्तावना, पृ० 14.