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आधुनिक हिन्दी-जैन-गद्य साहित्य : विधाएँ और विषय-वस्तु
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की रचना की। उपन्यास में पारिवारिक कथावस्तु के साथ-साथ जैन धर्म के तत्त्वों की चर्चा-महत्ता आदि को लेखक ने गूंथ लिया है। जैन धर्म की शिक्षा और नीति-चर्चा का समायोजन भी लेखक बीच-बीच में करते रहे हैं। इसी कारण छोटी-सी पुस्तिका होने पर भी आंशिक महत्त्व रहता है। भाषा प्रारंभिक काल की खडी बोली होने से संयुक्ताक्षरों की बहलता व अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग देख सकते हैं, जो भारतेन्दु कालीन उपन्यासों में प्रायः देखा जाता है। राजस्थान की बोलियों का प्रभाव भी कहीं-कहीं दीखता है। शैली में आलंकारिता या चमत्कार, वाक्-विद्ग्धता न रहकर सरलता ही रही है, जो ऐसे धार्मिक उपन्यासों के लिए विशेष अनुकूल रहती है। इसकी पारिवारिक कथावस्तु में रोचकता का काफी निर्वाह किया गया है और किस युक्ति से चतुर बहू अपने परिवार को धार्मिक शिक्षा के संस्कार देकर परिवार में सम-सलाह का वातावरण पैदा करती है।
श्री नाथूराम 'प्रेमी' ने बंगला के कतिपय उपन्यासों का हिन्दी में सफल अनुवाद किया है। इसी प्रकार बाबू पन्नालाल शर्मा ने भी प्राचीन कथाओं का हिन्दी में सुन्दर अनुवाद किया है। मुनि विद्याविजय ने 'रानीसुलसा'' नामक एक उपन्यास लिखा है, जिसमें सुलसा के उदात्त चरित्र का विश्लेषण कर पाठकों के समक्ष एक नवीन आदर्श लेखक ने प्रस्तुत किया है। भाषा और कला की दृष्टि से लेखक को पूर्ण सफलता प्राप्त नहीं हुई है। मध्यम कोटि का आदर्शात्मक धार्मिक उपन्यास है। कथा-साहित्य :
उपन्यास साहित्य एवं कथा साहित्य के अंतर का उल्लेख हम पहले कर चुके हैं। वैसे हिन्दी साहित्य में कथा साहित्य के अंतर्गत ही उपन्यास आता है, लेकिन जैन साहित्य पौराणिक, ऐतिहासिक, लौकिक कथाओं पर आधारित होता है, जबकि उपन्यास साहित्य धार्मिक या पौराणिक होने के साथ काल्पनिक भी हो सकता है। किसी प्रकार के ऐतिहासिक या पौराणिक सत्यता का आधार कथा-साहित्य के लिए आवश्यक माना गया है। प्रायः सभी कथाएँ जैन धर्म के प्राचीन ग्रंथों जैसे कि आचाजंग सूत्र, अध्यवनांग, पद्मचरित्र, सुपार्च चरित्र, अन्तकृनांग, ज्ञातुधर्म कथाएँ आदि-की कथाओं से कथानक (आधार) ग्रहण कर आधुनिक भाषा शैली व वातावरण के साथ रची गई है। प्राचीन ग्रंथों में कथाओं का विशाल भण्डार भरा पड़ा है। बहुत से कथा ग्रंथों का भावानुवाद किया गया है। बहुत सी कथाओं में केवल कथानक का अंशमात्र लेकर नूतन 1. डा० नेमिचन्द्र शास्त्री : हिन्दी जैन साहित्य का परिशीलन, पृ० 76.