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आधुनिक हिन्दी-जैन-गद्य साहित्य : विधाएँ और विषय-वस्तु 281 निम्नलिखित परिवर्तन भी वीरेन्द्र जी ने अपनी उद्भावक कल्पना-शक्ति से किए हैं1. 'पद्मपुराण' में बतलाया गया है कि मित्रकेशी पवनंजय की निंदा करती
हैं और विद्युतप्रभ की प्रशंसा करती है, तो पवनंजय मित्रकेशी और अंजना दोनों को जला देना चाहता हैं, लेकिन प्रहस्त के कहने से रुक जाता हैं 'मुक्ति दूत' में पवनंजय को इतना क्रोधी न बताकर नायक के चरित्र को महत्ता दी गई है। हाँ, पवनंजय का अंहभाव अपनी निंदा सुनकर जागृत अवश्य होता है और यही तत्त्व कथा प्रवाह को आगे बड़ाने वाला प्रेरक बल सिद्ध होता है। पुराण का पवनंजय मान-सरोवर से प्रस्थान करने पुनः पिता की आज्ञा से लौटा लेकिन वीरेन्द्र जी ने मित्र प्रहस्त द्वारा लौटवाकर अधिक मनोवैज्ञानिक बनाया है, क्योंकि ब्याह के लिए पिता की अपेक्षा मित्र अधिक समझा-बुझा सकता है, विशेषकर इन्कार के लिए परिस्थिति और कारण से मित्र अवगत है, जब कि पिता अनजान हैं उस स्थिति में। वरुण और रावण के युद्ध में प्रसंगकार ने वरुण को दोषी ठहराकर पवनंजय रावण की सहायता की है, जबकि इसमें अभिमानी राजा रावण को दोषी ठहराकर वरुण की सहायता करके रावण को परास्त होते हुए
दिखलाया गया है। 4. केतुमती द्वारा निर्वासित होकर महेन्द्रपुर पहुँच कर वसन्तमाला और
अंजना दोनों का राजा महेन्द्र के पास जाने का उल्लेख पुराण में किया गया है, परन्तु वीरेन्द्र जी ने केवल वसन्तमाला के जाने का उल्लेख कर अंजना के गौरव की रक्षा की है। अंजना की खोज में व्यस्त पवनंजय और प्रहस्त के वर्णन में भी दोनों के महेन्द्रपुर जाने का उल्लेख पुराणकार
ने किया है, पर 'मुक्तिदूत' में केवल प्रहस्त के जाने का उल्लेख है। 5. पुराण में वर्णन प्राप्त है कि कुमार पवनंजय जब अंजना की खोज में गए
तब उनके साथ उनका प्रिय साथी अम्बरगोचर भी रहता है, पर 'मुक्तिदूत' में ऐसा वर्णन लेखक ने नहीं किया है। इस प्रकार कथानक में लेखक ने पौराणिकता की सीमा में रहकर अपनी कल्पना को मुक्त रखा है, जिससे कथा वस्तु में स्वाभाविकता व सुन्दरता आ पाई है, लेकिन कथानक का अतिशय विस्तार सहज खटकने वाला लगता है, क्योंकि अनावश्यक विस्तार से कथानक में शिथिलता आ जाती है और पाठक कहीं-कहीं ऊब-सा जाता है। प्रारंभ में प्रासाद वर्णन