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आधुनिक हिन्दी - जैन साहित्य
इसी प्रकार महाचन्द जी ने 'भजनावली' के अंतर्गत राजस्थानी भाषा से प्रभावित हिन्दी में स्तवनों की रचना की है। इसमें उन्होंने भक्तिभावना पूर्वक अवगुणों को स्वीकार कर प्रभु के वीतराग रूप की प्रशंसा - स्तुति की है। प्रारंभ में मध्यकालीन भक्त कवियों की भाव- भाषा शैली से प्रभावित होकर भगवान ऋषभदेव व भगवान वर्धमान के जन्मोत्सव पर अयोध्या में मनाये गए उत्सवों का सुन्दर वर्णन किया है - जैसे
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बधाई आली नाभिराय घर आज ।। टेर ।।
मरु देवी सुत उपजो है आज
जितेन्द्र कुमार इन्द्रपुरी से हूँ भली है आज अयोध्या द्वार ॥ उसी प्रकार वर्द्धमान के जन्म अवसर पर -
सिद्धारथ राजा दरबारे बधाई रंग भेरी हो । टेका। त्रिशला देवी तें सुत जायो वर्द्धमान जिन राज बरी हो । कुण्डलपुर में घर घर
द्वारे होय रही आनंद घरी हो ॥ 1॥
कवि प्रभु के वीतरागी गुणों की स्तुति करते हैं:
राग द्वेष जाके नहिं मन में हम ऐसे चाकर हैं। टेर || जो हम ऐसे के चाकर तो कर्म रिपू हम कहा करि हैं ॥ 1॥ नहिं अष्टादश दोष जितूमें छियालीस गुण आकर हैं। सप्त तत्व उपदेश जग में सोहि हमारे ठाकुर हैं || 2 || मयूर दूत :
प्राचीन दूत काव्य 'इन्द्रदूत' की शैली पर सं० 1990 में मुनि धुरन्धर विजय ने कपड़वंज चातुर्मास के समय 'मयूर दूत' की रचना की, जिसमें जामनगर में चातुर्मास कर रहे अपने गुरु को मयूर के द्वारा भेजा है और भक्ति - वंदना की श्रद्धाजंली भेजी है। इसमें 180 पद हैं, जिसमें शिखरिणी छंद का प्रयोग अधिक किया गया है। कपड़वंज से जामनगर के बीच के प्राकृतिक भौगोलिक स्थलों का कवि ने सुन्दर रसात्मक शैली में वर्णन किया है। कवि की कवित्व शक्ति का परिचय इससे प्राप्त होता है। आदिकाल व मध्यकाल में दूत काव्यों की परम्परा विशेष दिखाई पड़ती थी, लेकिन आधुनिक काल में इसका प्रवाह स्थगित हो गया है। यह कृति आज अप्राप्त होने से उसकी विस्तृत विवेचना संभव नहीं है। इसका उल्लेख डॉ० गुलाबराय चौधरी संपादित 'जैन साहित्य का बृहद् इतिहास' (छठा भाग) के अंतर्गत पाया जाता है।