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आधुनिक हिन्दी जैन साहित्य : सामान्य परिचय
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अन्वेषणात्मक निबंध लिखते हैं। कई ग्रन्थों की भूमिकाएं आपने लिखी हैं, जो इतिहास के निर्माण में विशिष्ट स्थान रखती है। 'जैन-इतिहास की पूर्वपीठिका' तो शोधात्मक अपूर्व वस्तु है। इस छोटी-सी रचना में गागर में सागर भर देने वाली कहावत चरितार्थ हुई है। आपकी रचना शैली प्रौढ़ है। उसमें धारावाहिकता पाई जाती है। भाषा सुव्यवस्थित और परिमार्जित है। थोड़े शब्दों में अधिक कहने की कला में आप प्रवीण हैं। महाधवल, क्वाल सम्बन्धी आपके परिचयात्मक निबंध भी महत्त्वपूर्ण हैं। श्रवण बेलगोल के जैन शिलालेखों की प्रस्तावना में आपने अनेक राजाओं, छतिजों और श्रावकों पर संशोधनात्मक परिचय लिखे हैं।
डा. नेमिचन्द्र शास्त्री का भी आधुनिक युग के ऐतिहासिक निबंधकारों में काफी महत्त्वपूर्ण स्थान है। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आपके ऐतिहासिक तथा दार्शनिक निबंध प्रकाशित हुए हैं। हिन्दी जैन साहित्य परिशीलनात्मक इतिहास आपने दो भागों में लिखा है, जो मध्यकालीन एवं आधुनिक विविध प्रवृत्तियों की जानकारी से समृद्ध है। निबंध के अलावा संस्मरण लिखने में भी आप कुशल हैं।
मुनि श्री कान्तिसागर जी ने भी गवेषणात्मक निबंध अच्छे लिखे हैं। विशेष कर जैन चित्रकला, वास्तुकला तथा मूर्तिकला के विषय में काफ़ी गहराई में जाकर निबंध लिखे हैं। इन निबंधों में कला के साथ अनेक स्थानों के विषय में संशोधनात्मक प्रकाश डाला है। 'खण्डहरों का वैभव' और 'खोज की पगडंडियां' इतिहास-पुरातत्त्व की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण निबंधों के संकलन हैं। 'विशाल भारत' में भी आपके संग्रहालय तथा स्थापत्य सम्बन्धी लेख प्रकट हो चुके हैं-'प्रयाग संग्रहालय में जैन पुरातत्त्व' और 'विन्ध्यभूमि का जैनाश्रित शिल्प स्थापत्य' निबंध इस विषय में बड़े महत्वपूर्ण है।
प्रो. खुशालचन्द्र गारावाला का नाम भी ऐतिहासिक निबंध रचयिताओं में आदर से लिया जाता है। 'कलिंगाधिपति खारवेल और 'गोम्मट प्रतिष्ठा चक्र' आपके महत्त्वपूर्ण निबंध हैं। आचारात्मक और दार्शनिक निबंध :
हिन्दी जैन निबंध साहित्य में दार्शनिक निबंधकारों की संख्या सर्वाधिक है। इस प्रकार के निबंध विचार प्रधान होने के साथ वर्णन प्रधान भी होते हैं। सभी निबंधकारों का परिचय यहां मुश्किल है। अतः प्रमुख निबंधकारों का संक्षिप्त परिचय ही पर्याप्त होगा। आचार-प्रधान निबंधों से जैन समाज अच्छी 1. डा० नेमिचन्द्र शास्त्री-हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन, द्वितीय भाग-पृ. 127. 2. प्रकाशक-भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली।