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आधुनिक हिन्दी जैन काव्य : विवेचन
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"प्रणाम श्री सागर-ज्ञान सिन्धु को, प्रणाम-भू-भूषण विश्व बन्धु को, नामामि सत्यार्थ-प्रकाश-भानु को, नमामि तत्वार्थ विकास ज्ञान को।" महावीर की शरण-अशरण-उद्धारक एवं भवसागर पार करने वाली है
है जैनेन्द्र पदारविन्द-तरणि संसार-पयोधिकी।
इस प्रकार धर्म और वैराग्य की भावना को लेकर लिखे गये इस महाकाव्य में यत्र-तत्र अनेक जगह पर दार्शनिक विचारधारा प्रकाशित की गई है। संसार की क्षण-भंगुरता एवं मानव-जीवन की क्षणिकता, जीवन-मृत्यु आदि पर 'वर्द्धमान' में सुन्दर विचार व्यक्त किये गये हैं। सांसरिक बन्धन व्यर्थ समझकर वैराग्य-भावना से अपने को आत्म-पराये की भावना से मुक्त समझना चाहिए, क्योंकि
सहस्र माता, शत कोटि पुत्र भी, पिता, असंख्यात मित्र भी, अनन्त उत्पन्न हुए, जिये-मरे न मैं किसी का, वह भी न माम की। स. 13-18
मनुष्य का जीवन कितना क्षण-भंगुर, अल्पजीवी है कि उस पर अभिमान घमण्ड या आसक्त होना निरर्थक है।
'सरोज-पत्र स्थित नीर बूंद की, मनुष्य की आयु अतीव चंचला।'
इसी कारण मनुष्य को सदैव धर्म-साधना एवं प्रभु पद-सैवी बनना चाहिए, क्योंकि जैन धर्मसदैव मोक्षप्रद जैन धर्म है, तथैव रत्न-त्रय साध्य मोक्ष है, वितान है मोक्ष अनन्त संख्या का, प्रतान है सांख्या अनादि शक्ति का।
ऐसे जीवन-उद्धारक धर्म की शरण मनुष्य जन्म को सार्थक करने वाली हो तो इसमें आश्चर्य क्या? महावीर विश्व को एक रंगभूमि ही समझते हैं
मनुष्य का जीवन रंगभूमि है, जहाँ दिखाते सब पात्र खेल हैं, कभी हिलाया कर सूत्रधार ने, हुआ पटाक्षेप तुरन्त मृत्यु का। पृ. 306-86
उसी प्रकार जीवन-मृत्यु की नित्यता कवि ने स्वीकृत कर विरूप न बताकर नवजीवन का संदेश देनेवाला चित्रित किया है। क्योंकि मनुष्य का जीवन तो एक पुष्प समान है, जो सवेरे खिलता है, शाम को मुरझा जाता है या तो बसन्त-सा प्रारम्भ और निदाघ-सा अन्त है।
मनुष्य का जन्म प्रभात-काल है, तथैव है जीवन एक बार का,