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आधुनिक हिन्दी जैन काव्य : विवेचन
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परपीड़न सम पाप नहीं है, सकल धर्म परमान यही है।
पर-दुःख-भंजन कवि निरंतर, सन्त प्रयत्न करत सदन्तर॥ अतएव प्राणीमात्र को अपने समान समझना चाहिए, क्योंकि
अपने जीवित सम सबको जानी, समान भाव समालत प्राणी सो नर दीर्घायु तन सुंदर, पाते जाते मोक्ष समुद्र। 4। 171॥
क्रोध, लोभ, मोहादि विकारों का त्याग सर्व धर्म में स्वीकार किया गया है, क्योंकि क्रोध सर्व विनाश का मूल है। अत: उसे त्याग कर क्षमा व शान्ति अपनानी चाहिए
क्रोध अनल सम अनल न कोऊ, विनय बुद्धि जलादि देता। कब हुक आतम घात करावे, अधरित वचन कबू उचरावे॥ दुरगति विकट पंथ लेजाते, फंसे फिर ही जन मुक्ति पावे।
ताते सज्जन क्रोध बण्डाला, कहकर निंदत है चिर काला॥ अत:
क्षमा शान्ति सुख मूल में, क्रोध आगमन डार। चेतन अबतो चेत के, बिगरी बाजि सुधार॥
सहिष्णुता उत्तम गुण है, इस पर विवेकयुक्त विचार करना चाहिए, क्योंकि
दृढ़ पिंजर नग दुर्ग निवासा, करत किंतु न नाशा।
पूर्व पाप क्षीण करन उपाई, सहन शीलता सम नहि भाई॥ क्षमा जैसे उच्च गुण के लिए कवि क्या कहते हैं
संत वीर का क्षमा ही भूषण, तरे न तामसी क्रोध ही दूषण। पूर्व अशुभ कृत कर्म बसाये, जीव अवसि न जन-जाल फंसाये॥
जैन व दर्शन में अहिंसा के साथ-साथ सत्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह को अत्यन्त महत्व दिया गया है
जीवदया व्रत सत्य समालो, अदन ग्रहन कू सब विध टालो। ब्रह्मचर्य व्रत निभवहु प्रीते, परिग्रह को तर्क सज रीते॥ हो आसक्त जीव वधकारी, अष्टकर्म बांधत अविचारी।
नरक जात दुःख तीक्षण पावे, तीर्थचके अनम में आवे॥ धन-संपत्ति एवं सांसारिक सम्बंध निःसार है, क्योंकि
किसके कारन कौन फुलाया, किसने किसी को नांहि रुलाया जान स्वरूप ऐसे संसारा, तब बुथ वन शिव मार्ग स्वीकारा॥
राज ताज धन संपत्ति, सुत दारा परिवार, को न किसी का है ही कह, वृथा विश्व वहवार।।