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आधुनिक हिन्दी जैन काव्य : विवेचन
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जाने क्यों इतने निष्ठुर तुम होकर इतने ज्ञानी। तुम माँ न बने हो, इससे जननी की व्यथा न जानी॥
लेकिन सामने अडिग महावीर थे। उनका तो स्पष्ट उत्तर था कि कामनाओं की कभी पूर्ति नहीं हो पाती। अनन्त इच्छाएँ क्रियाएँ कभी तृप्त होने वाली नहीं। नारी के समान ही विश्व के मूक प्राणी मेरे प्रेम व करुणा के अधिकारी हैं। उनकी करुण पुकार मेरे कानों को छेदकर व्यथित करती है। क्या एक नारी के साथ वैभव-विलास एवं तुच्छ सांसारिक सुखों के लिए में हजारों निर्दोष प्राणियों की बलि देख लूँ? क्या उनको उबारने के लिए प्रयत्न ढूंढने का मेरा कोई कर्त्तव्य नहीं? मेरे सामने स्वजनों का स्नेह, आनंदोल्लास कुछ भी महत्व नहीं रखता, क्योंकि नेत्रों के सामने तो पशुओं की बलि-समय की करुण पुकार व रुधिर त्रस्तदशा का भयावना, क्रूर दृश्य नाचता रहता है। इस स्थिति में राजभवन में रहकर मैं वैवाहिक जीवन के आनंद स्वरूप भोग-विलास में कैसे रत रह सकता हूँ? अतः इन सबको उद्देश्य पथ में बाधक समझकर, उनका त्याग कर वैराग्य की राह पर उन्मुक्त हुए। शान्ति एवं करुणा की साक्षात् मूर्ति महावीर के मुख से व्यक्त होती उक्तियाँ उनके मानसिक द्वन्द्व को व्यक्त करती हैं। उनकी वाणी में ओज, हृदय में व्यथा तथा नयनों में करुणा की निर्झरिणी बहती है। अपने विचारों व निश्चय को सत्य का चोगा पहनाकर वे कहते हैं
ये एक ओर हैं इतने, और अन्य ओर है नारी, अब तुम्हीं बताओ इनमें से कौन प्रेम अधिकारी। आकृतियाँ इनकी सकरुण, दिखती हैं सोते जगते, तब ही तो रमणी से भी रमणीय मुझे ये लगते।
वर्द्धमान माता को निराश नहीं देख सकते, लेकिन स्वयं विवाह के लिए इच्छुक नहीं हैं। अपनी विवशता व्यक्त करते हुए माँ से विनती करते हैं
जननी! मैं आज विवश हूँ। देने को उत्तर होता। तू सोच न अपने उर में, बन गया पुत्र यह कैसा? इस जगत को मुझे बताना,
द्रष्टव्य-धन्यकुमार जैन रचित 'विराग' द्वितीय सर्ग, पृ० 23. 2. द्रष्टव्य-धन्यकुमार जैन रचित 'विराग' द्वितीय सर्ग, पृ० 27.