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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
देखा अब धर्म उदर के पोषण का एक बहाना, हिंसा को पुण्य बताते थे, मांस जिन्हें ही खाना। है एक ओर उस ईश्वर के मंदिर भरे विभव से। जिसको कुछ नहीं प्रयोजन, अब स्वर्ण रजत के लव से॥
बन चुके धर्म-गुरु सब ही अन्य विलास के मद से। अतएव उठाते अनुचित
ही लाभ प्रतिष्ठित पद से॥ 3-36॥ वर्धमान के उस समय की सभ्यता-संस्कृति के विषय में चिन्तन द्वारा कवि आधुनिक मानव जीवन पर करारा व्यंग्य करते हैं-यथा
बन गई सभ्यता अब तो मदिरा के प्याले पीना, जीने के लिए न खाना पर खाने को ही जीना। प्राणों से प्यारे नर को सोने के पाले डेले वह आज विचारों की ग्रन्थि हुई है ढीली।
इसलिए पापियों की ही दुनिया है रंग-रंगीली। अधिकार व सत्ता से पैदा होती दानवता का कुमार चित्र खींच देते हैं
अब यही राज सिंहासन, अपना यह रूप बदलते। तब महायुद्ध मचवा कर, लाखों के प्राण निगलते॥ रंग देते अरुण रुचिर से, वे युद्ध क्षेत्र की धरती। जो मध्य लोक में नकों की वसुधा का भ्रम करती॥
उक्त रूप से पति-पत्नी, पिता-पुत्र एवं माता-पुत्र के बीच संवादों में भी सभी की मानसिक स्थिति का कवि ने ख्याल दे दिया है। तीनों प्रमुख चरित्रों के हृदय में उलझन, चिन्ता आदि का प्रभाव है। वर्धमान तो घण्टों अकेले बैठकर भी सोचते-विचारते रहते हैं। पूरा तृतीय सर्ग कुमार के मानसिक संघर्ष का ही है। द्वितीय व चतुर्थ में भी उनका द्वन्द्व वार्तालाप के द्वारा व्यक्त होता है।
ऐसा प्रतीत होता है कि 'विराग' का कवि जैन दर्शन की दिगम्बर विचारधारा में विश्वास करता है क्योंकि उन्होंने वर्धमान को विवाहित न बनाकर ब्रह्मचर्यावस्था में ही दीक्षा प्राप्त करते हुए वर्णित किया है। जो भी हो, 'विराग' प्रेरणा का कारण बन सकती है। 'विराग' काव्य में कवि ने शान्त वात्सल्य रस के छीटों की अनुभूति करवाई है।