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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
जड़ अरु अगुनि कुल हीन जन, अबुध छते गुनवान। द्रव्यमान को जग कहे, सबमें द्रव्य प्रधान॥ समरांगण शूरवीर कहावें, कीर्ति, कीर्ति काव्य कवि जिन के गावे। रूप मदते रतिनाथ लजावे, विद्या चउद सुजान सुहावे॥ कलावान गुनि-धनि के द्वारे, सब आकर धनि सेव स्वीकारे॥
किये अमित उपकार मित्रगण, त्याग देत मित्राह हितवन।। कर्मों के फल के विषय में कवि के विचार है कि
अच्छे बुरे स्वकर्म को, फल पावे जग जीव। कर्म रूपे बिन काहु को, किमपि न होवे शिव॥
अपने कर्मों के अनुसार ही मनुष्य को सुख-दु:ख प्राप्त होते हैं व मनुष्य शान्ति, क्षमा, प्रेम, सहिष्णुता आदि उच्च गुणों के द्वारा आध्यात्मिक उन्नति कर सकता है। मनुष्य के कर्मों की गति निराली होती है
"अति विचित्र गति है कर्मन की,
आकृति कऐ सत्य गुन जन की।" देह की क्षणभंगुरता के सन्दर्भ में उल्लेखनीय है कि
अंजलि जल मंद ही बह जाता, निश दिन ऐसे आयु घटाता। यह क्षणभंगुर देह न तेरा, जासी को क्षन सांझ सवेरा॥ क्षणंभगुर तन तोर हित, परकों दुःख क्यों देत। मूलदास कहता मनुज, चेत चेत अब चेत॥ 51 446॥'
अहिंसा-तत्व जैन धर्म का प्राण तत्व है। अहिंसा के विषय में 'वीरायण' कार के विचार द्रष्टव्य हैं
धर्म मूल ही अहिंसा जानी, पालन समुझकर ज्ञानी। मद्य-मांस रात्रिका भोजन, दुःख रोग करते हैं उत्पन्न।
स्वयं प्रभु ने अपार कष्ट सहकर हिंसा का प्रतिरोध अहिंसा रूपी शस्त्र से कर अहिंसा का महामंत्र संसार के समक्ष रखा
महावीर स्वामी शिर अपने, सहे दुःख कलेशन स्वप्ने। क्षमा-मंत्र ही महा बतलायो, परम धर्म अहिंसा समुझायो॥
अहिंसा के कारण ही किसी भी जीव को दुःख पहुँचाना महापाप माना गया है। स्वयं कष्ट सहन करके भी अन्य के कल्याण के लिए क्रियारत रहना श्रेष्ठ मानव धर्म है, जबकि पर-पीड़न जघन्य कृत्य होने से मानव की अधोगति करता है
1. द्रष्टव्य-कवि मूलदास कृत-'वीरायण' पंचम खण्ड, पृ० 469.