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आधुनिक हिन्दी जैन काव्य : विवेचन
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मंत्र महानवकार, नाव भवाब्धि तरन को। साधन श्रेष्ठ त्रिकार, दिन किंकर मुलदास का॥ 5-3॥ नित नित श्री नवकार, प्रातः काल प्रथम जपत। पिछे सकल व्यवहार, दिन किंकर मुलदास का॥ 5-4॥
इस प्रकार 'वीरायण' महाकाव्य में जैन धर्म के तत्वों का सुंदर व स्वाभाविक विनियोजन हुआ है। कवि ने दार्शनिक गूढ तत्वों की अपेक्षा लोक-व्यवहार के सत्यों का विशेष रूप से निरूपण किया है। खण्ड-काव्य :
महाकाव्य की तरह खण्ड काव्य भी प्रबन्ध का एक भेद है। महाकाव्य की भाँति इस काव्य-स्वरूप में नायक के जीवन का सर्वांगीण विकास, महानोदेश्य, व विशद् वर्णनों की न ही आवश्यकता रहती है और न गुंजाइश। नायक के जीवन की एकाध प्रमुख घटना या प्रेरक प्रसंग ही इसकी विषय वस्तु बन सकती है। खण्ड-काव्य की चर्चा करते समय इसके विषय में पीछे हम कह चुके हैं। रसों के लिए भी खण्डकाव्य में विविधता की अपेक्षा नहीं रखी जाती। अपने फलक के अनुसार उद्देश्य का साम्य दोनों में समान रहता है।
आधुनिक हिंदी जैन काव्य साहित्य में उपलब्ध खण्ड काव्य की चर्चा हम कर चुके हैं। यहाँ इनकी कथावस्तु, रस, वर्णनादि पर विचार कर लेना समचीन होगा। आधुनिक हिंदी जैन साहित्य में गद्य की तुलना में पद्य का प्रमाण सीमित है, इसमें भी महाकाव्य व खण्डकाव्यों की संख्या विशेष मर्यादित है। प्राप्त खण्ड काव्यों में श्री धन्यकुमार 'सुधेश' द्वारा विरचित 'विराम' खण्ड काव्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। कवि ने स्वयं ही इसे 'भावनात्मक खण्डकाव्य' से अभिहित किया है। भावात्मक वर्णन तथा मधुर भाषा-शैली के कारण सुन्दर बन पड़ा है। छोटे से कथानक को अपने में समेटे हुए 'विराग' कुमार महावीर की व्यावहारिक दार्शनिकता के कारण विशिष्ट बन पड़ा है। इसकी यह विशेषता ध्यातव्य है कि भगवान महावीर के सम्बन्ध में तो साहित्य उपलब्ध होता है, लेकिन कुमार वर्धमान की भावनाओं का मार्मिक अंकन करने के बहुत अल्प प्रयास किये गये हैं। ऐसे अल्प प्रयासों में से एक सुन्दर प्रयास-'विराग' की रचना के द्वारा कवि सुधेश जी ने किया है। स्वयं कवि ने स्वीकार किया है कि-"मैं इस बात को अस्वीकार नहीं करता कि विश्व का कल्याण भगवान महावीर ने किया है, कुमार वर्धमान ने नहीं, फिर भी मैं उनकी कुछ विशेषताओं के कारण कुमार महावीर से ही प्रभावित हूँ। इस काव्य में कवि सुधेश ने 1. द्रष्टव्य-कवि मूलदास कृत-'वीरायण' पंचम खण्ड, पृ० 384. 2. द्रष्टव्य-धन्यकुमार जैन रचित 'विराग' का प्राक्कथन, पृ० 1.