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आधुनिक हिन्दी जैन काव्य : विवेचन
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कांता और कविता की मांहि , औगुन गुन के पता न कांही।
सो पंचात बात महि मेरे, लिखे भक्ति से प्रेरे।। 7-340।। कथा-वस्तु :
'वीरायण' महाकाव्य में कवि मूलदास जी ने भगवान महावीर की विश्रुत जीवन कथा को विशद् रूप से अंकित किया है। महावीर की लोक-प्रसिद्ध कथा को पुनः विवेचित करने की आवश्यकता नहीं हैं। महावीर के पूर्व भवों की कथा, माता त्रिशला एवं पिता सिद्धार्थ का पुत्र-रत्न की प्राप्ति पर आनंदोल्लास, वर्द्धमान का बाल्यकाल, दीक्षा एवं दीर्घ तपस्या, केवलज्ञान प्राप्ति के अनन्तर लोक-कल्याण के लिए उपदेशक महावीर के विहार की प्रसिद्ध कथा को कवि ने काव्य-बद्ध किया है। मुख्य कथा के साथ अवान्तर कथाओं में कवि ने प्रमुख प्रसंगों की अवतारणा भी की है, जिनमें त्रिपृष्ट वासुदेव, देव-परीक्षा, चण्ड कौशिक-कथा, गोशालक-कथा, चन्दना-चरित्र, मृगावती-कथा तथा ग्यारह विद्वान ब्राह्मणों को अपने प्रमुख शिष्य बनाकर चतुर्विध संघ-स्थापन की कथा प्रमुख है। इन आनुषांगिक कथाओं से मुख्य कथा का प्रवाह कहीं-कहीं मंद हो जाता है, या स्थगित-सा भी हो जाता है, तथा कथा-सूख बीच में छूट-सा जाता है। इससे मूल कथा-स्वरूप से सातत्य बनाये रखने में तकलीफ रहती है। सहायक पात्रों के पूर्व जन्मों की कथा से मुख्य कथा को आत्मसात् करने में कठिनाई महसूस होती है, अतः रसास्वादन में भी विक्षेप पड़ता है। वैसे कवि ने जैन-दर्शन-ग्रन्थों, उत्तराध्यायन सूत्र, सूत्रकृतांत्र, पुण्याश्रय कथाकोश, बृहत कथाकोश, ठाणांग सूत्रादि के आधार से महावीर की जीवनी से संबंधित सभी घटनाओं एवं पात्रों को कथा के अंतर्गत संनिष्ट किया है। भगवान महावीर की कथा वैयक्तिक न होकर सामूहिक होने से गौण कथाओं व प्रसंगों का उनकी जीवनी के अंतर्गत महत्व रखता है। अतएव कवि ने भी मर्यादित फलक वाली मुख्य कथा को सहायक घटनाओं, पात्रों एवं विविध वर्णनों की बहुलता से पुष्ट करने का प्रयत्न किया है। परिणाम स्वरूप महाकाव्य की कथा वस्तु में जो सुगठन, क्रमबद्धता तथा औचित्य अपेक्षित रहता है, इसका कवि से यथोचित निर्वाह नहीं हो पाया है। गौण पात्रों के पूर्व जन्मों की कथाओं के वर्णन की आवश्यकता महाकाव्य में किसी प्रकार महत्वपूर्ण नहीं प्रतीत होती। वरन् अनावश्यक पौराणिकतत्व का समावेश दीख पड़ता है। कथावस्तु में यत्र-तत्र ऐतिहासिक क्रम का उल्लंघन हुआ है। महावीर एवं गोशालक का प्रसंग इसका एक उदाहरण है। वैसे काव्य के भावगत सत्य में यदि यह उल्लंघन बाधक न होता हो तो इस औचित्य का विशेष महत्व नहीं