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आधुनिक हिन्दी जैन काव्य : विवेचन
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तेज के फलस्वरूप संयमी महावीर के चरित्र में शृंगार और रस विलास की भूमिका उपलब्ध नहीं है। उसी प्रकार महाकाव्य में घटनाओं के संधान और प्रतिसंधान के लिए जिस प्रतिद्वन्दी या प्रतिनायक की आवयकता रहती है, वह भी महावीर के जीवन में उपलब्ध न होने से काल्पनिक 'मुक्ति देवी' नायिका और 'काम' या 'मारवृत्ति' को प्रतिद्वन्दी बनाकर श्रृंगार और वीर रस के कृत्रिम उपादान जुटाने पड़ते हैं। 'इससे रीति की रक्षा तो होती है, अर्थ और चमत्कार भी उत्पन्न होता है, लेकिन पाठक की अनुभूति को उकसाकर हृदय को भिगाने
और गलानेवाला रस कदाचित ही उत्पन्न होता हो।' फिर जलक्रीड़ा, यात्रा, उद्यान-विहार, युद्ध और विजय के मानवीय चित्रणों के द्वारा रसों की आयोजना करना कठिन हो जाना कवि के लिए सहज स्वाभाविक है। फिर भी अनूप जी ने रोचक और आकर्षक वर्णनों के द्वारा इन अभावों की पूर्ति करनी चाही है। इसीलिए भगवान की जीवनी में शृंगार व वीर रस के उपादानों की कमी के कारण ही 'वर्द्धमान' जैसा सुन्दर चरित-काव्य हमें अत्यन्त कम और कितने सालों के बाद उपलब्ध होता है। राम, कृष्ण एवं बुद्ध के जीवन से सम्बंधित महाकाव्य काफी उपलब्ध होते हैं। इस सन्दर्भ में लक्ष्मीचन्द्र जैन का मंतव्य शत-प्रतिशत उचित है कि-"क्या भगवान महावीर के जीवन वृत्त के आधार पर शताब्दियों बाद तक भी कोई सांगोपांग महाकाव्य लिखा जा सका? हिन्दी साहित्य में भी जहां सूर और तुलसी के समय से लेकर आधुनिक युग तक रामचरित मानस, सूर-सागर, बुद्ध-चरित, प्रिय-प्रवास, साकेत, यशोधरा और सिद्धार्थ लिखे गये, वहां 'वर्द्धमान' के लिए हिन्दी साहित्य को इतनी लम्बी प्रतीक्षा करनी पड़ी। इसका मुख्य कारण यह है कि भगवान महावीर की जीवनी जिस रूप में जैनागमों में मिलती है, उसमें ऐतिहासिक कथा-भाग और मानवीय रागात्मक वृत्तियों का घात-प्रतिघात गौण है और भगवान की साधना-मोक्ष-प्राप्ति की प्रयत्न कथा ही मुख्य है। महाकाव्य के लिए जिस शृंगार अथवा वीर रस के परिपाक की आवश्यकता है, उनका ऐतिहासिक कथा सूत्र या तो मूल रूप से है ही नहीं या किन्हीं अंशों में यदि घटित भी हुआ हो तो उपलब्ध नहीं।
इस प्रकार 'वर्द्धमान' की कथा वस्तु पर किसी संस्कृत रचना का प्रभाव नहीं है। प्राकृत और अपभ्रंश तथा हिन्दी में भगवान महावीर की गौरव-गाथा यत्र-तत्र सर्वत्र विकीर्ण मिलती है, क्योंकि उनका चरित्र संस्कृति के सरोवर का एक प्रमुख सोपान है। 1. श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, 'वर्द्धमान', आमुख, पृ. 3. 2. श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, वर्द्धमान', महाकाव्य, आमुख, पृ. 2-3. 3. डा. वीणा शर्मा-आधुनिक हिन्दी महाकाव्य, पृ. 11.