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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
मिला न दिग्सूचक-यंत्र-साज भी,
प्रिये! तुम्हारा कर, मैं दुःखी रहा। प्रत्युत्तर में त्रिशला की भी ऐसी ही स्नेहासिक्त भाव प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है-यथा
प्रकाश से शून्य अपार व्योम में, उड़ी, बनी आश्रित एक-पक्ष में। मिला नहीं नाथ! द्वितीय पक्ष-सा,
अभी तुम्हारा कर मैं दुःखी रही। परस्पर के स्नेह-सानिध्य के बिना जीवन के सार तत्त्व आनंद और जीवन-साफल्य से सम्बन्धित राज-दम्पत्ति के वार्तालाप का कवि ने मधुर आह्लादक वर्णन किया है। यहां तो केवल उल्लेख ही किया गया है। शृंगार रस की प्रमुख आधार भूमि न होने पर भी कवि ने यथा-संभव महाकाव्य में संयोग-शृंगार के वर्णन द्वारा महाकाव्य को सुचारु बनाने का उपक्रम किया है। शृंगार के दूसरे पक्ष वियोग-शृंगार की यहां संभावना अंशतः भी नहीं है। क्योंकि संयोग- शृंगार के अन्तर्गत उसका पुष्ट रूप उभारने के लिए कवि को रानी त्रिशला-नायक की माता-का आधार ग्रहण करना पड़ा है तथा नायक अविवाहित होने से नायिका के अभाव में वियोग शृंगार का चित्रण उपलब्ध नहीं होता। "अनूप शर्मा ने 'वर्द्धमान' में महावीर के पिता सिद्धार्थ और माता त्रिशला के प्रेम और यौवन का तो विस्तृत चित्रण किया है, किन्तु स्वयं महावीर का विवाह केवल स्वप्न में करा दिया।"
_ 'वर्द्धमान' में चित्रित श्रृंगार के वर्णन पर आलोचना की दृष्टि जाती है कि त्रिशला के नख-शिख वर्णन में पुनरुक्ति आ गई है। प्रथम सर्ग में कवि द्वारा वर्णित है, तो दूसरे सर्ग में प्रेमी राजा सिद्धार्थ ने त्रिशला के देह-सौन्दर्य को उद्घाटित किया है। फलतः पुनरुक्ति के कारण बोझिलता और जांघ, नितम्ब, उरोजादि के पुन:-पुनः वर्णन से अमर्यादा की हल्की-सी गन्ध भी आ जाती है। वैसे कहीं-कहीं ऐसे वर्णनों में आकर्षण व काव्यात्मक सौन्दर्य भी दृष्टिगोचर होता है। संस्कृत काव्यों की परिपाटी पर स्थित नख-शिख वर्णन में सिद्धार्थ द्वारा प्रयुक्त वर्णन में मर्यादा का उल्लंघन-सा प्रतीत होता है। क्योंकि महाराज सिद्धार्थ एवं महारानी त्रिशला की आयु यौवन सुलभ चेष्टाएं तथा 1. अनूप शर्मा-'वर्द्धमान' महाकाव्य-पांचवां सर्ग, पृ० 160-84,85. 2. डा. विश्वंभरनाथ उपाध्याय का 'अनूप शर्मा-कृतियाँ और कला' के अन्तर्गत
निर्बध-'वर्द्धमान और द्विवेदी युगीन परंपरा', पृ. 156.