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आधुनिक हिन्दी जैन काव्य : विवेचन
प्रभात के कोमल कंप - युक्त से, पखे गुलाबी पद पूर्व - शीर्ष में, कि अंशु के फाल चले महीध्र पे दिनेश यों मोक्कि - बीज वो रहा । '
उषा का स्वागत करते हुए कवि उल्लखित होकर गा उठते हैं
निशा - मुषे ! स्वागत है उषे ! तुझे सुदेवते! सुन्दरि ! लेश - लज्जिते । त्वदीय जो स्वर्णिम अंशुकावली, लगी अंगों में दिन के स्फुलिंग - सी ।
त्वदीय वो अंशुक अंशु से बना उषे! समाच्छादित अर्ध-व्योम में, हुआ, कि मोती उससे गिर पड़े, झडे अंगों पे बन ओस-बुन्द ही । 2
इसी प्रकार पांचवें सर्ग में भी शारदीय निशा का, सातवें सर्ग में वसन्तु ऋतु के सौंदर्य का तथा नवें सर्ग में ग्रीष्म की दारुण गर्मी तथा उसके परिणामस्वरूप वन-उपवन व पशु-पक्षियों पर पड़ने वाले उसके तीव्र प्रभाव का कवि ने सुन्दर वर्णन किया है। छठे सर्ग में प्रभाती दृश्यों का विविध रूप व्यक्त किया गया है। सातवां सर्ग तो पूर्णतः प्रकृति-चित्रण से ही चित्रित रहा है। इस सर्ग में वसन्त ऋतु के वर्णन से प्रारंभ कर उसके वैभव रूप फल-फूल, पुष्प - वाटिका एवं विविध पक्षियों की क्रीड़ा व आनंदोल्लास से सर्ग को मोहक बनाया गया है। त्रिशला देवी अपनी सहेलियों तथा उसकी परिचर्या के लिए नियुक्त की गई दासियों के साथ पुष्प वाटिका में गर्भावस्था के समय में नित्य-विहार करती है, तब प्रकृति भी अपने प्रफुल्ल रूप में मंत्र-मुग्ध होकर मानो राजरानी को गर्भभार की अलसित स्थिति में आनंद पहुंचाकर मनोरंजन करती है
स्वकीय पुष्पांचल से वसन्त भी, बिखेरता पुष्पित कुड्मलादि है, प्रतान से पुष्प - प्ररोह ऊर्जना, गिरा रही पुष्पव रम्य रेणु है।
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1.
अनूप शर्मा - 'वर्द्धमान', पृ० 120-14-15. 2. वही, पृ० 123-24, 25.