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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
परिवर्तित हो जाती है। राजा-रानी के उदात्त दाम्पत्य-प्रेम में दृढ़ स्नेह व स्वस्थ मनोवृत्ति प्रतिबिम्बित होती है। इस सन्दर्भ में लक्ष्मीचन्द्र जैन का कथन उपयुक्त प्रतीत होता है कि 'काव्य में जो वर्णन परम्परा से मान्य है और शृंगार के प्रसंग में अशोभन नहीं, उसे छोड़ने के लिए कवि बाध्य नहीं। दूसरी बात यह भी है कि त्रिशला के रूप नख-शिख वर्णन राजा की प्रेयसी के रूप में किया जा रहा है। सिद्धार्थ का मन-भंग सौन्दर्य-वल्लरी के जिन सरस दलों और पिकवों के प्रति लुब्ध है, उनका रागात्मक वर्णन उन्हीं के दृष्टिकोण से किया गया है। तीसरे यह कि दूसरे सर्ग का पार्थिव शृंगार यदि पांचवें सर्ग में अपार्थिव और आध्यात्मिक हो गया है, तो यह कवि की सफल कल्पना का प्रतीक है। डा. बनवारीलाल शर्मा का इस सम्बन्ध में विचार है कि-"काव्य में नायिका का अभाव है, किन्तु कवि ने वर्द्धमान की माता रानी त्रिशला के नख-शिख और रति-क्रीड़ा का वर्णन कर शृंगार रस की सुन्दर सृष्टि की है। कवि का यह वर्णन प्राचीन परम्परा के अनुकूल होने पर भी नैतिक दृष्टि से प्रशंसनीय नहीं कहा जा सकता।
शान्त रस की प्रमुखता के साथ आनुसंगिक रूप से शृंगार के बाद रोद्र व अद्भुत रस का भी कवि ने यत्किंचित् प्रयोग किया है। बालक वर्धमान की परीक्षा हेतु भयंकर सर्प बनकर आये देव के रौद्र स्वरूप एवं व्यवहार में इसकी झांकी होती है
अलक्त गुंजा-सम नेत्र क्रोध में, कराल नासा-पुट घूम छोड़ते, स्फुलिंग-माला मुख से निकालता
खड़ा हुआ काल-कराल सर्प था। इसी प्रकार चन्दना के कथा-प्रसंग में करुण रस की निष्पति करने का कवि ने कुशल प्रयास किया है, तथा महावीर की दीर्घ तपस्या के समय देव, मानव व पशुओं के द्वारा, पहुंचाई गई यातना और कष्टों के मार्मिक वर्णनों में पाठक को करुण रस की अनुभूति हो सकती है। राजकन्या चन्दना कर्मवश दुःखद परिस्थितियों में पड़कर दासी से भी निम्न दशा प्राप्त करती है
अघोत-वस्त्रा, अभिता अशंसिता,
अशोच-देहा, अभगा, अभागिता, 1. लक्ष्मीचन्द्र जैन-'वर्द्धमान' महाकाव्य की भूमिका, पृ. 10. 2. डा. बनवारीलाल शर्मा-स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी प्रबन्ध काव्य, पृ. 61. 3. अनूप शर्मा-'वर्द्धमान', पृ॰ 266-37.