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आधुनिक हिन्दी - जैन साहित्य
किया सुन्दर नख - शिख वर्णन, प्रसन्न दाम्पत्य जीवन की विशिष्टता और अनुरागमय व्यवहार व संतृप्त स्नेह का कवि ने रसमय वर्णन करके सात-सात सर्गों तक सिद्धार्थ के चरित्र पर विशेष जोर दिया है। इन सबके बावजूद भी सिद्धार्थ को नायक पद पर प्रतिष्ठित करने का कवि का उद्देश्य किंचित्मात्र नहीं प्रतीत होता है। महावीर का चरित्र भले ही आठवें सर्ग से प्रारम्भ होता हो और तदनन्तर पुष्ट होता हो, कवि ने भगवान महावीर के त्यागी - जीवन एवं उनके तीर्थंकरत्व को ही प्रमुख रूप से प्रतिष्ठित किया है। अतः सिद्धार्थ को प्रमुख चरित्र का गौरव अवश्य प्राप्त होता है, नायक - पद पर तो महावीर भी विराजमान है।
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महाकाव्य में शास्त्रीय लक्षणानुसार उदात्त, उच्चकुलीय, शान्त, धीरगंभीर नायक के सभी गुण भगवान महावीर में पाये जाते हैं। उच्चकुलीय तो हैं ही, बचपन से ही धीर-गंभीर और चिन्तनशील हैं। तपस्वी, वीतरागी महावीर अपने भीतर मानवीय भावों की अपेक्षा उदात्त तत्त्वों का विशेषत निर्वाह करते हैं। 9वें सर्ग से कुमार की विचारधारा, चिंतनात्मकता तथा मनोमंथन का कवि ने प्रमुख रूप से चित्रण किया है। इससे नायक के प्रति श्रद्धा तो जागृत हो सकती है, लेकिन तादात्म्य मूलक अनुभूति नहीं होती । विराटता, भव्यता एवं दिव्यता नायक के चरित्र के अवश्य फलित होती है। मानवीय सहजता व स्वाभाविकता का दर्शन कम हो पाता है। नायक की दिव्य मूर्त्ति का कवि ने सुन्दर वर्णन किया है-यथा
ललाट में एक अनूप ज्योति है, प्रसन्नता आनन में विराजती । मनोज्ञता शोभित अंग-अंग में, पवित्रता है पद-पद्म चूमती ।'
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कवि ने महावीर के चरित्र को क्रमशः उदात्तता प्रदान की है। महावीर आत्मविकास के साथ जन-कल्याण की भावना से ओत-प्रोत थे। कविवर अनूप जी ने उन्हें इसी रूप में प्रतिष्ठित किया है- महावीर अपने उदात्त चरित्र की चरम सीमा तक पहुंचकर मानव से तीर्थंकर बन गये इसे कवि ने बड़ी कुशलता से चित्रित किया है। बचपन से ही वे शान्त एवं चिन्तनप्रिय थे। खेलने-कूदने की उम्र में ही वे अन्य बालकों से भिन्न प्रकृति - प्रवृत्ति वाले थे। बचपन में साथियों के साथ नदी के तट पर खेलते समय निकटस्थ वन में आग देखकर उनका हृदय करुणा से भर जाता है और उस आग में फंसे पशु-पक्षियों को बचाने का अनुनय करते हैं
1. अनूप शर्मा - वर्द्धमान, पृ० 415-8.