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आधुनिक हिन्दी जैन काव्य : विवेचन
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ललाट में एक अनूप-ज्योति है, प्रसन्नता आनन में विराजती। मनोज्ञता शोभित अंग-अंग में पवित्रता है पद-पद्म चूमती।'
गृह-त्याग के बाद दीक्षार्जन के अनन्तर साढ़े बारह वर्ष तक कठिन तपस्या के पश्चात् महावीर 'केवलज्ञान' प्राप्त करते हैं। अपने विचारों का जैन-समाज में प्रचार-प्रसार हेतु इन्द्रभूति आचार्य (गौतम स्वामी) को पट्टशिष्य (प्रथम गणधर) बनाते हैं तथा प्रथम बार 'चतुर्विध संघ' की स्थापना करके आचार-विचार व व्यवहारादि सभी उपादेय विषयों पर संदेश देने के लिए स्थान-स्थान पर भ्रमण करने लगे। महावीर के इस आध्यात्मिक नेता-पक्ष का जितना उत्कृष्ट उभार महाकाव्य में हुआ है, उतना मानवीय पक्ष का नहीं। कवि ने महावीर के उपदेशक और साधु स्वरूप को महत्त्वपूर्ण रूप से अंकित किया है। महाकाव्य में नायक को आजान वाहु, दीर्घवक्षस्थः, सुरम्य और सुरुचिपूर्ण व्यक्ति के रूप में महत्त्व प्राप्त होता है। 'वर्द्धमान' में भी नायक के इस बाह्य शारीरिक रूप का वर्णन अवश्य प्राप्त है। वैराग्य-भावना से प्रेरित दीक्षा के समय नायक की दीप्तिमय छवि का कवि सुरम्य शब्द-चित्र अंकित करते हैं
प्रसन्न था आनन ज्ञात-पुत्र का सतोगुणाभास-समेत राजता; सरोजिनी-के-पुष्प-दलानुकारि थे मनोज्ञ दोनों श्रुति कान्ति-राशि से।
त्रिरेख-संयुक्त अनूप कंठ था, महान-शोभा-मय कंजु-सा लसा; अलग्न अद्यावधि नास्विक्ष से
सुपुष्ट था वक्ष-कपाट सोहता। प्रलंब अजानु भुजा विराजती, मनोरमा कल्प-लता-समान ही, अलक्त दोनों कर की हथेलियां,
लसी हुई थीं युग-शोण-द्रोण-सी। महावीर के तीर्थंकरत्व को घोषित करते हुए कवि कहते हैं
1. अनूप शर्मा-वर्द्धमान, पृ. 415-8. 2. अनूप शर्मा-वर्द्धमान, पृ. 430-109, 110-111.