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आधुनिक हिन्दी जैन काव्य : विवेचन
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महावीर की शान्त-चित्त-निःसृत स्नेहपूर्ण वाणी को सामान्य मनुष्य भी हृदयंगम कर सकने में समर्थ हो सकता है। 'वर्द्धमान' महाकाव्य का परम उद्देश्य लगता है कि भगवान महावीर की अहिंसा, प्रेम, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह (पांच महातत्त्व) की उच्चतम भावना से पूर्ण सामान्य लोक व्यवहार की शिक्षा सबको समान रूप से एवं सुगमता से ग्राह्य हो सके। इसी कारण 'वर्द्धमान' में महावीर के चिन्तन-मनन के संदर्भ में प्रकाश प्राप्त होता है, लेकिन उनके द्वारा प्रतिपादित गूढ तत्त्व दर्शन और सैद्धांतिक विवेचन उपलब्ध नहीं है। वैसे यह अच्छा ही हुआ है, क्योंकि महाकाव्य में रस-निष्पत्ति के दृष्टिकोण से ऐसा सूक्ष्म तात्त्विक विवेचन काव्य को नीरस व बोझिल बना देता है और पाठक को रसास्वादन में क्षति भी पहुंचाता।
इस प्रकार शान्त रस की प्रमुखता 'वर्द्धमान' काव्य के नायक व विषय-वस्तु के संदर्भ में पूर्णतः योग्य सिद्ध होती है। इसके साथ कवि ने शृंगार रस को भी यथोचित स्थान प्रदान किया है। शृंगार-रस :
'वर्द्धमान' काव्य में कवि ने प्रारंभ के सात सर्गों तक राजा सिद्धार्थ एवं रानी त्रिशला के चरित्र को प्राधान्य देकर उनके सौन्दर्य, प्रेम व दाम्पत्य-जीवन के मधुर वर्णनों से शृंगार रस फलित होता है। "इसमें शान्त रस की प्रधानता है। श्रृंगार के लिए इस रचना में कोई स्थान न होते हुए भी महाराज सिद्धार्थ
और रानी त्रिशला के दाम्पत्य प्रेम के सरस निरूपण के कारण यह महाकाव्य शृंगार से वंचित नहीं होने पाया है। इस काव्य में नायिका का अभाव है। इसकी पूर्ति कवि ने रानी त्रिशला के नख-शिख और रति-क्रीड़ा के परम्परागत वर्णनों से की है।"
दूसरे सर्ग में आलेखित राजा-रानी का मोह, आकर्षण, प्रेमालाप, देह-सौन्दर्य और सांसारिक प्रेमासक्ति पांचवें सर्ग में आध्यात्मिक भावानुभूतिपूर्ण शुद्ध स्नेह और स्वस्थ दाम्पत्य जीवन में परिवर्तित हो जाता है, तथा प्रेम की गरिमा और महिमा को प्राप्त कर सात्विक स्नेह के तेज-से प्रकाशित होता है। दार्शनिक विचारधारा से पूर्ण काव्य में मानवीय भावों से अनुरंजित प्रेमधारा जहां उमड़ती हो, वहां वर्णन अधिक रोचक व सजीव बन पड़ते हो तो आश्चर्य क्या? दूसरे सर्ग में त्रिशला के सौन्दर्य से प्रभावित हो अपनी अनुभूति राजा सिद्धार्थ व्यक्त करते हुए कह उठते हैं1. डा. वीणा शर्मा-आधुनिक हिन्दी महाकाव्य, पृ. 45.