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आधुनिक हिन्दी - जैन साहित्य
इस प्रकार 'वर्द्धमान' नूतन विषय-वस्तु से युक्त सुन्दर महाकाव्य है, इसमें कोई शंका नहीं। फिर भी उसे उत्कृष्ट कोटि का महाकाव्य कहने में झिझक रहती है, क्योंकि महान चरित नायक होने पर भी महान उद्देश्य, महान कार्य, जीवन के लिए परमावश्यक चेतना व प्रेरणा का प्रायः अभाव, पुष्ट कथा वस्तु व उपाख्यानों की कमी, विविध पात्रों की न्यूनता आदि से यह महाकाव्य वंचित रह गया है। फिर भी शास्त्रीय नियमों का इसमें काफी मात्रा में परिवहन किया गया है। प्राचीन संस्कृत महाकाव्यों की परिपाटी पर लिखे गये इस महाकाव्य में 'धीरादोत्त गुणों से युक्त नायक वर्द्धमान के अभ्युदय एवं उत्कर्ष से सम्बंधित कथानक, सर्गबद्धता, अष्टादिक सर्ग-संख्या, छन्द-प्रयोग, नाटकीय संधियों की योजना, प्रमुखतः शान्त एवं गौणतः अन्य रसों की योजना, महाकाव्योचित वर्णन - वैचित्र्य आदि लक्षण परम्परागत शास्त्रीय रूप में संनिविष्ट है | चारित्रिक गरिमा एवं उत्कर्ष, सम्बंधनिर्वाह, एवं कथा-प्रवाह, लोक मंगलकारी विभिन्न आदर्शों की प्रतिष्ठा, उत्कृष्ट कवित्व एवं व्यापक सौन्दर्य-सृष्टि, भाषा-शैलीगत औदात्य तथा महाकाव्योचित गुरुत्व एवं गांभीर्य की दृष्टि से भी रचनाकार को पर्याप्त सफल कहा जा सकता है।
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'वर्धमान' महाकाव्य का नायक :
'वर्धमान' महाकाव्य में जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर नायक के रूप में प्रतिष्ठित हैं। समाज और साहित्य में राम-कृष्ण और बुद्ध का चरित्र जितना लोकप्रिय है, उतना महावीर का नहीं हो सका, इसके क्या कारण हो सकते हैं इस पर हम विचार कर चुके हैं। राम कृष्ण के चरित्र में मानवीय संवेदनाएं विशेष उपलब्ध होती हैं, जबकि महावीर में एकान्त त्याग - वैराग्य की अनुभूति विशेष है। भगवान महावीर का निर्मल चरित्र हमारे वैयक्तिक जीवन की उदात्तता एवं उत्कृष्टता की आदर्श स्थिति का संकेत करता है और समाज के व्यावहारिक जीवन से थोड़ा दूर पड़ता-सा दृष्टिगोचर होता है। जबकि राम-कृष्ण का जीवन व्यावहारिक एवं आदर्शात्मक समन्वय की भूमि पर प्रतिष्ठित है।
जैन धर्म के प्रमुख दो सम्प्रदायों की भिन्न-भिन्न विचारधारा के कारण भी वर्धमान को नायक के रूप में स्थापित कर महाकाव्य की रचना करना कठिन रहा है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय महावीर को विवाहित मानता है जबकि दिगम्बर सम्प्रदाय अविवाहित ही स्वीकारता है। नायक के साथ नायिका का
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डा. लालताप्रसाद सक्सेना-हिंदी महाकाव्यों में मनोवैज्ञानिक तत्व, प्रथम भाग, पृ० 38.