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आधुनिक हिन्दी - जैन साहित्य
मान्यता है कि दीक्षा के अनन्तर प्रभु ने दिगम्बरावस्था में ही विहार किया था और श्वेताम्बरों में यह विश्वास है कि प्रभु ने श्वेतास्त्र - वेशभूषा धारण कर विचरण किया था। कवि ने चातुर्य से समन्वय करते हुए बताया कि प्रारम्भ में प्रभु ने देव दूष्य धारण किया था, लेकिन एक पल के लिए जनपद वासियों को आंखें बंद करने का आदेश देकर प्रभु त्वरित गति से आगे निकल पड़े और देव दूष्य वहीं पड़ा रहा
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अहो अलंकार विहाय रत्न के, अनूप - रत्नत्रय - भूषितांग हो । जे हुए अम्बर अंग-अंग से, दिगम्बराकार विकार शून्य हो || समीप ही जो पट देवदूष्य है, नितान्त श्वेताम्बर - सा बना रहा। अग्रन्थ निर्द्वन्द्व महान संयमी, बने हुए हो निज धर्म के ध्यजी ॥'
इसी प्रकार कवि ने इस महाकाव्य की कथा वस्तु में केवल वर्द्धमान के विवाह सम्बंधी दो विभिन्न मतों का सामंजस्य ही नहीं किया है, अपितु कथा वस्तु में ब्राह्मण धर्म एवं जैन धर्म की विचारधारा का भी मेल बिठाना चाहा है, क्योंकि कवि स्वयं ब्राह्मण है। वैसे कवि ने जैन दर्शन की तात्विक चर्चा यहां नहीं की है। इसमें भगवान के दिव्य जीवन की झांकी तो मिलती है, लेकिन महावीर प्रभु द्वारा प्रतिपादित दर्शन और तत्त्व विवेचन जो विश्व के दार्शनिक इतिहास में मौलिक और अद्वितीय है, वह यहां कवि के द्वारा अछूता रह गया है। इसके दो कारण हो सकते हैं, प्रथम तो कवि 'वर्द्धमान' को सर्व साधारण के लिए भी पाठ्य बनाना चाहते हैं और फलस्वरूप महावीर के जीवनोपयोगी उपदेश को ही कवि ने इसमें मुख्यतः स्थान दिया है। इस ओर इंगित करते हुए लिखा है
" जिनेन्द्र बोले वह धर्म वाक्य जो कि सर्व साधारण बोधगम्य हो, गृहस्थ के, साधु-समाज के सभी, बता चले धर्म तथैव कर्म भी । "
महावीर की उपदेश - शैली, वाणी माधुर्य एवं लोक भाषा की यही विशेषता है कि आचार-विचार, व्यवहार, अहिंसा, दया-प्रेम, मानवता, कर्म सम्बन्धी उनका उपदेश सर्व साधारण जनता के लिए बोध गम्य हो सकता है। दूसरा कारण यह है कि महाकाव्य में अधिक दार्शनिक चर्चा के कारण नीरसता का आ जाना सहज संभाव्य है। एक तो महावीर के जीवन वृत्त में रसिलता, श्रृंगार या हार्दिक अनुभूति को रोमांचित करने वाली घटनाओं का प्रमाण अत्यन्त अल्प है, जिस पर ऐसी दार्शनिक चर्चा सविशेष आती तो सरसता का क्षेत्र और भी संकुचित हो जाता।
1. अनुप शर्मा - वर्द्धमान, पृ० 432, 119, 120.
2.
अनुप शर्मा - वर्द्धमान, पृ० 562, 149.