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आधुनिक हिन्दी जैन साहित्य : सामान्य परिचय
अपनी कारयित्री प्रतिभा से माता त्रिशला के सौन्दर्य - प्रेम का सुन्दर वर्णन किया है। उसी प्रकार राजा सिद्धार्थ एवं रानी त्रिशला के अनुराग पूर्ण दाम्पत्य जीवन का मार्मिक चित्रांकन कर महाकाव्य में उदात्तता निरूपित की है। कितने ही स्थानों पर सुन्दर समन्वय कर नवीन कल्पना जगत की सृष्टि खड़ी की है। 'वर्धमान' महाकाव्य में जैन- सम्प्रदायों के सिद्धान्त - समन्वय का स्तुत्य प्रयास किया गया है, जो कवि अनूप जी की शुभ-निष्ठा का सूचक है। चरित्र चित्रण के दृष्टिकोण से भी प्रमुख पात्रों - राजा सिद्धार्थ, रानी त्रिशला, महावीर (कुमार वर्धमान, त्यागी महावीर एवं तीर्थंकर महावीर) का सुन्दर चित्रण हुआ है। भाव, भाषा, शैली, वर्णन, काव्य चमत्कार आदि दृष्टियों से 'वर्धमान' महाकाव्य को न केवल सफल ही कहा जायेगा, बल्कि विशिष्ट धर्म सम्प्रदाय एवं सन्दर्भों को उद्घाटित करने वाला नूतन दृष्टिवाला महाकाव्य कहना चाहिए। इसी कारण अहिंसा, सत्य, अन्तर्बाह्य तपस्या, एकाग्र निष्ठा तथा मानव-कल्याण का सन्देश देनेवाला 'वर्धमान' महाकाव्य न केवल हिन्दी जैन साहित्य में बल्कि आधुनिक हिन्दी साहित्य में भी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त करने का अधिकारी है। वीरायण'
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इस महाकाव्य की रचना संवत् 2006 में सौराष्ट्र में जामनगर के समीप 'फलां' नामक छोटे से गांव के निवासी कवि श्री मूलदास नीमावत ने की है। जैन सम्प्रदाय एवं हिन्दी भाषी न होने पर भी उन्होंने ब्रज - अवधी से प्रभावित हिन्दी में महाकाव्य लिखने का प्रसंशनीय प्रयास किया। वैसे मूलदास जी 'फलां' में स्कूल शिक्षक थे। फिर भी निरन्तर अध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ भ्रमण - यात्रा करके ज्ञानवर्द्धन करते रहते थे। उनकी मुक्तक रचनाओं से (जो अप्रकाशित हैं) सदानंदी सम्प्रदाय के मुनि छोटेलाल जी महाराज एवं लक्ष्मीचन्द्र जी महाराज प्रभावित हुए थे और उन्होंने ही 'वीरायण' महाकाव्य में प्रभु महावीर का जीवन संदेश गुम्फित करने की प्रेरणा दी थी। जिसके फलस्वरूप मूलदास जी ने परिश्रम करके जैन धर्म-ग्रन्थों एवं कथा - ग्रन्थों का गहरा अध्ययन किया। महाकवि भक्त तुलसीदास के प्रसिद्ध महाकाव्य 'रामचरित मानस' की भव्यता, महानता एवं रामचरित्र - यशोगान से प्रभावित होकर उसी भाषा शैली व छन्द में भगवान महावीर की सम्पूर्ण जीवनी एवं उनके सन्देश को गुम्फित करने की प्रेरणा उपर्युक्त दो साधुओं ने दी और फलस्वरूप सात वर्ष के परिश्रम के बाद इस महाकाव्य 'वीरायण' का सृजन संभव हो पाया।
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1. प्रकाशक - पूज्य श्री लाघा जी स्वामी पुस्तकालय, अहमदाबाद, सन् 1952. 2. द्रष्टव्य- मूलदास कृत 'वीरायण' की प्रस्तावना, पृ० 2.