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आधुनिक हिन्दी - जैन साहित्य
व्यवहार करने का संदेश दिया गया है। 'गरीब' करुण रस प्रधान नाटक है। सामाजिक विषमता एवं उसके प्रति विद्रोह की भावना इसमें मुख्यत: है । लक्ष्मी की चंचलता बताकर लेखक ने मानव हृदय की मानवता को जगाने का उभारने का प्रयास किया है। रंगमंच के दृष्टिकोण से भी यह नाटक काफ़ी सरल एवं अभिनेयात्मक है। सीधी सरल खड़ी बोली में लिखे गये इस नाटक का कथानक हमारे समाज का ही है, अतः काफी रोचक भी रहा है। पौराणिक कथानक पर आधारित उनके दो अन्य नाटक हैं-'भाग्य' और एकांकी संग्रह 'बलि जो चढ़ी नहीं'। 'भाग्य' में श्रीपाल - मैना की प्राचीन कथावस्तु ग्रहण की गई है। इसकी भाषा पद्यमय है। पुरानी कथावस्तु को प्रस्तुत करने का भगवत् जी का ढंग अवश्य आधुनिक है। लेखक ने रंगमंचीय संकेतों का पूरा निर्वाह किया है। 'बलि जो चढ़ी नहीं' एकांकी संग्रह में भी पौराणिक, राष्ट्रीय, सामाजिक आदि 7 एकांकियों का संग्रह है। सभी के पीछे निश्चित उद्देश्य रहा है। 'बलि जो चढ़ी नहीं', 'राजपूत', 'आत्मतेज', 'गरीब का दिल', 'स्वदेश-प्रेम', 'राजा का कर्त्तव्य' तथा 'देह की मांग' आदि एकांकियों में न्याय, देशभक्ति, वीरता अहिंसा, उपकार, सहानुभूति आदि उच्चादर्शों की अभिव्यक्ति प्रमुख पात्रों के माध्यम से की है।
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इस प्रकार नाट्य कृतियों का संक्षिप्त परिचय प्राप्त करने से पता चलता है कि नाटक प्राय: पौराणिक कथावस्तु पर आधारित है और प्राचीन शैली के नाटकों में खड़ी बोली गद्य की अपेक्षा पद्य का प्रयोग अधिक देखने को मिलता है। सामाजिक विषयवस्तु एवं वातावरण को लेकर नाटकों की रचना बहुत ही कम हुई है। बीसवीं शताब्दी में जो नाटक लिखे गये, उनमें आधुनिक साज-सज्जा, भाषा तथा अभिनयात्मकता का पूरा ख्याल रखा गया है। प्रारम्भिक पौराणिक नाटकों के शेरो-शायरी ढंग के पद्यमय संवादों पर पारसी नाटकों का प्रभाव अधिक दिखाई पड़ता है।
निबन्ध :
आधुनिक काल को गद्य-युग भी कहा जा सकता है। क्योंकि इस काल में वैचारिक प्रचार-प्रसार का इतना सशक्त माध्यम सिद्ध हो चुका है कि गद्य की आज अनेक विधाओं का काफी विकास हुआ है। गद्य के नये-नये रूपों में उपन्यास, नाटक, जीवनी की तरह निबन्धों का भी सम्पूर्ण महत्त्व आज के युग में स्वीकृत है। निबन्ध में ही हमारे मस्तिष्क के श्रृंखलाबद्ध तार्किक गम्भीर विचारों एवं हृदय की अनुभूतियों का ठीक से ( क्रमबद्ध) निर्वहन हो पाता है। हिन्दी साहित्य में भी निबन्धों का प्रारम्भ भारतेन्दु जी से ही हुआ और हिन्दी