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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
होने पर भी चुस्त-घटना-प्रवाह के कारण रोचकता बनी रहती है। कर्मों की मीमांसा के कारण पूर्व जन्मों को महत्व दिया गया है। फलस्वरूप कथा के अन्तर्गत कथा का प्रवाह चलता है। धार्मिक तत्वों की चर्चा का आधिक्य उपन्यास के कथा प्रवाह व रसास्वादन में कहीं-कहीं बाधाकारक बनता है; क्योंकि दार्शनिक ग्रन्थ एवं उपन्यास दोनों एक नहीं हो सकते हैं। जैन धर्म के पांच महाव्रतों की महत्ता अभिव्यक्त करने के लिए मुख्य-मुख्य पात्र नागश्री, नागशर्मा और आचार्य सूर्यमित्र के द्वारा भिन्न-भिन्न कथा वर्णित की गई हैं। साधारण भाषाशैली का यह उपन्यास अपने युग के संदर्भ में काफी महत्व रखता है। चतुर बहू':
पं. दीपचन्द जी परवार ने ईस्वी सन् 1926 में इस छोटे से सामाजिक उपन्यास की रचना की है, जिसमें पारिवारिक कथावस्तु के साथ शिक्षाप्रद घटनाओं का निर्वाह किया गया है। कथा के प्रवाह में बीच-बीच में जैन धर्म की शिक्षा और नीति की चर्चा का समायोजन लेखक ने कुशलता पूर्वक किया है। इसी कारण छोटी-सी पुस्तिका होने पर भी साहित्य में अपना विशिष्ट महत्व रखती है। भाषा प्रारंभिक खड़ी बोली के समय की होने से संयुक्ताक्षर बहुल है, जो भारतेन्दु कालीन उपन्यासों में सर्वत्र देखा जाता है। राजस्थान की बोली का प्रभाव भी भाषा-शैली पर यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होता है। शैली में चमत्कार, आलंकारिकता या वाक् विदग्धता न होकर सर्वत्र सरलता ही विद्यमान है।
मुनि श्री विद्याविजय ने 'रानीसुलसा" नामक एक धार्मिक उपन्यास लिखा है, जिसमें रानी सुलसा के उदात्त चरित्र का विश्लेषण कर लेखक ने पाठकों के समक्ष एक नवीन आदर्श उपस्थित किया है। भाषा और कला की दृष्टि से इसमें पूर्ण सफलता लेखक को नहीं मिल सकी है। इस उपन्यास का केवल उल्लेख ही प्राप्त हो सका है। प्रकाशित रूप में अनुपलब्ध है। कथा साहित्य :
हिन्दी में कथा साहित्य के अन्तर्गत कहानी तथा उपन्यास दोनों का समावेश होता है, किन्तु जैन साहित्य के अन्तर्गत केवल कहानी को कथा-साहित्य के अन्तर्गत लिया जाता है। यह एक परम्परा सी बन गई है। इसका उल्लेख हमने पिछले अध्याय में किया भी है। 1. इसकी एक प्रति 'मोहनलाल जी जैन लायब्रेरी' भूलेश्वर, बम्बई से प्राप्त की गई
थी। 2. डा० नेमिचन्द्र शास्त्रि-हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन-द्वितीय भाग, पृ० 76.