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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
उपाध्याय ध्यान ते उपाधि सम होत, साघ परिपून को सुमिरन रहे। पंचपरमेष्ठि को नमस्कार मंत्रराज धावै, मन राम कोई पावे निज धन है।
रोगापहार स्तोत्र, बत्तीसी, बड़ाकक्का, अक्षरमाला, धर्मसहेली, गुणाक्षरमाला, और अनेक फुटकर पद उनके प्राप्त होते हैं। ___ कुंवरपाल जी वि० सं० 1684 में हुए और बनारसीदास जी के अभिन्न पांच कवि मित्रों में से एक थे। उनकी 'धर्म-शैली' के उत्तराधिकारी वे ही थे। उन्होंने कोई विशेष ग्रन्थ नहीं रचा है, लेकिन फुटकर पदों की संख्या मिलती हैं। बनारसीदास जी की मण्डली में उनका काफी सम्मान था। पाण्डे हेमराज ने भी उनको 'कोरपाल ग्याना अधिकारी' कहा है। 'समवित बत्तीसी' उनकी 33 पद्यों की रचना है, जिसमें अध्यात्म रूप रस की चर्चा की है।
विशाल कीर्ति जी ने 'रोहिणीव्रतरास' नामक ग्रन्थ धर्मपरी नामक स्थान में रचा था। वे बागड़ देश के सागवाडिया संध के साधु भट्टारक थे। यह एक साधारण रचना है। विजयदेव सूरिका रचा हुआ एक 'सीलरासा' भी इसी शती में प्राप्त होता है, जिसकी भाषा गुजराती मिश्रित है और नेमि-राजुल जी की प्रसिद्ध कथा-वस्तु को लिया गया है। ____ यशोविजय की उपाध्याय इस शताब्दी के प्रमुख कवि, आचार्य एवं विद्वान पंडित हैं। वे केवल आचार्य ही नहीं थे, बल्कि रसपूर्ण साहित्य के ज्ञाता एवं सर्जक भी थे। वे बहुत की उच्च कोटि के शास्त्रकार भी थे। 300 से अधिक उनके ग्रन्थों की सूची है। भक्ति और अध्यात्म की रचनाएं भी उन्होंने काफी लिखी हैं। वे जन्मजात प्रतिभा संपन्न एवं शीघ्र कवित्व शक्ति के साथ असाधारण तीव्र याद शक्ति वाले थे। गुजरात के होने पर भी बनारस तथा आगरा न्याय, वेदान्त एवं अन्य शास्त्रों का गहरा अध्ययन उन्होंने थोड़े ही वर्षों में किया
और उनमें पारंगत भी हुए। विद्याभ्यास के बाद गुजरात में आने के बाद उनका भव्य सम्मान किया गया और उन्हें 'उपाध्याय' की पदवी से विभूषित किया गया। गुजराती के अलावा संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और हिन्दी पर उनका समान अधिकार था। चारों भाषाओं में उन्होंने जमकर काफी लिखा। श्रीमद् हेमचन्द्राचार्य के उपरान्त भारतीय धरा एक बार फिर प्रकाण्ड विद्वता के तेज से गौरवान्तिव हो उठी थी। उनकी 300 कृतियों में प्रमुखतः छन्द, अलंकार, रस, व्याकरण
और न्याय की रचनाओं के साथ काव्यकृतियां भी हैं, उनमें 'खण्डन-खण्डस्वाद्य' जैसे ग्रन्थ उनकी ऐसी विद्वता के कीर्ति स्तंभ है। सज्जाय, पद और स्तवनों के 1. डा. प्रेमसागर जैन-हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि, पृ. 201.