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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
समय की साहित्यिक गतिविधि भारतेन्दु बाबू की परिष्कृत साहित्यिक सुरुचि एवं जागरूकता के फलस्वरूप केन्द्रित होकर नवीन वातावरण नियोजित करने में प्रतिफलित हुई थी।"' भारतेन्दु जी के अथक प्रयास से ही खड़ी बोली गद्य का प्रारंभ हुआ एवं उपन्यास, नाटक, निबंध, आलोचना, प्रहसनादि का प्रारंभ कर उन्हें सुविकसित करने का श्रेय भी उन्हें प्रदान किया जाता है। तथैव अपने समकालीन लेखकों की मण्डली बनाकर उनकों भी निरन्तर साहित्य-सृजन की प्रेरणा देते रहे। तन मन व धन से हिन्दी साहित्य के गद्य क्षेत्र को सुसंपन्न कर 'हिन्दी साहित्य' के 'आधुनिक युग के पिता' का विरुध पूर्णतः सार्थक सिद्ध किया है। विविध-पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन कर सभी दिशाओं में आधुनिक वैचारिक क्रान्ति का सफल प्रयास भी भारतेन्दु जी ने किया। जब हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल में गद्य की विविध दिशाओं के द्वार खुले तब हिन्दी जैन साहित्य भी कैसे अछूता रह सकता है। वैसे हमारे प्राचीन संस्कृत-अपभ्रंश साहित्य में गद्य का प्राचीन रूप उपलब्ध होता है, लेकिन आधुनिक साहित्य में जिस रूप में उसका विकास हुआ है, इसका श्रेय पाश्चात्य साहित्य को ही दिया जाता है। क्योंकि आधुनिक गद्य की रूप-रेखा व नैकट्य हमारे प्राचीन साहित्य से न होकर पाश्चात्य साहित्य की विचारधारा से विशेष है।
आधुनिक काल में हिन्दी साहित्य में जैसी गतिशीलता तथा नूतन-प्रवाह व्यक्त होता है, वैसा हिन्दी जैन साहित्य में लक्षित न होता हो तो वह स्वाभाविक है। क्योंकि जैन साहित्य एक अल्पसंख्यक धर्म विशेष से आबद्ध साहित्य है, जिसमें उस धर्म विशेष की दर्शन प्रणाली से प्रभावित विचारधारा, तीर्थंकरों एवं अन्य महत्वपूर्ण चरित्रों के लक्ष में रखकर साहित्य सृजन होता है। तथापि अल्पसंख्यक वर्ग का धर्म होने से दर्शन प्रणाली तथा सिद्धान्तों के प्रति चुस्तता एवं प्रतिबद्धता विशेष रहती है। अत: इसी दर्शन एवं धर्म के मूलभूत तत्वों को दृष्टिगत कर साहित्य सृजन करते समय साहित्यकारों को विशिष्ट सीमा में आबद्ध रहना पड़ता है। वैराग्य व त्यागप्रधान धर्म होने से शृंगार तथा प्रेम का मुक्त गगन उपलब्ध नहीं होता है। लेकिन फिर भी आधुनिक हिन्दी जैन सहित्य ने मानव-मानव के बीज सेतु रूप सोख्य, सोहार्द की मानवीय भावनाओं, अहिंसा प्रधान विचारधारा, त्याग, क्षमा, समताभाव, सहिष्णुता, अपरिग्रह तथा अनेकान्तवादादि का सुन्दर संदेश दिया है, जिसका प्रभाव समाज पर भी पड़े बिना नहीं रह सकता। हिन्दी जैन साहित्य में उपलब्ध रचनाएं भले ही मील का पत्थर न बन पाई हों किन्तु उनके महत्व को नकारा नहीं जा सकता है। 1. द्रष्टव्य-हिन्दी साहित्य का बृहत् इतिहास-द्वितीय खण्ड-भारतेन्दु युग, पृ. 79.