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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
पत्र-पत्रिकाओं का भी कम योगदान न था। अवनति के गर्त में डूबे हुए देश का उद्धार करने का कार्य इन सभी ने मिलकर सुसंपन्न किया। रामकृष्ण आश्रम, थियोसोफिकल सोसायटी, ब्राह्मोसमाज, बंग समाज तथा आर्य समाज आदि विभिन्न सामाजिक सुधार के उद्देश्य से प्रेरित ये संस्थाएं नूतन विचारधाराओं का प्रसार कर भारतीय जन-जीवन में जागृति-चेतना का संचार करने लगीं। ई० सन् 1857 की प्रथम स्वतंत्रता क्रान्ति के बाद आधुनिक काल स्वीकार किया जाता है। "वस्तुतः भारतेन्दु युग की पृष्ठभूमि में भारतीयों ने सर्वप्रथम परम्परागत संकीर्णता एवं आस्थापूर्ण धर्म-प्रवण मनोनिवेश से मुक्ति पाकर छिन्न एवं जीवनगत कटुता का बोध किया था। इसके प्रेरक कई कारण थे, जिनमें धार्मिक आन्दोलनों का अपना विशिष्ट रूप था। भारतीय आधुनिकता के प्रचार का सबसे महत्वपूर्ण श्रेय 'ब्रह्मसमाज' को दिया जाता है। साम्प्रतिक नवीन चेतना एवं जागृति के कारण नूतन शिक्षा प्रणाली का प्रवेश तथा ईसाई धर्म का प्रचार सम्यक् रूपेण हो चुका था। आधुनिक वातावरण के इस जागृति काल में आर्य समाज (सन् 1857) और इंडियन नेशनल कांग्रेस (सन्) 1885) ने नये युग की भावना को और प्रोत्साहित कर चेतना की लहर के साथ बौद्धिकता एवं सहयोग का वातावरण फैलाया। इस राष्ट्रीय-सामाजिक सुधार की प्रवृत्ति में श्रीमती एनीबेसन्ट ने थियोसोफिकल सोसाइटी (सन् 1893) के माध्यम से पाश्चात्य दर्शन का परिचय देते हुए भारतीय दर्शनों की ज्ञान-गरिमा से देश को परिचित करवाया। साहित्यिक दृष्टि से 'नागरी प्रचारिणी सभा' और 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका' के प्रकाशन ने भी नवीन युग की अवतारणा में काफी सहयोग प्रदान किया। लेकिन नूतन साहित्यिक गतिविधि का प्रारंभ तो इसके पूर्व भारतेन्दु जी के साहित्य प्रवेश (सन् 1850 से 1885) से हो चुका था।
गद्य के प्रारंभ ने भी आधुनिक काल के प्रवर्तन में अपना महत्वपूर्ण विशिष्ट योगदान देकर वैज्ञानिक क्रान्ति का वाहक बनने का पूर्ण श्रेय प्राप्त कर लिया। इसीलिए तो आधुनिक काल का पर्याय-सा गद्य हो चुका है। वैसे गद्य का प्रारंभिक रूप आधुनिक काल से पूर्व थोड़ा-बहुत प्राप्त होता है, जो अव्यवस्थित तथा अल्प मात्रा में है। अंग्रेजी शासन काल में गद्य को भारतेन्दु जी एवं उनके सहयोगियों द्वारा फैलने व व्यवस्थित होने का विस्तृत क्षेत्र प्राप्त हुआ। 'अंग्रेजों के संरक्षण में आधुनिक खड़ी बोली गद्य का जन्म तो नहीं हुआ, उसका स्वतंत्र अस्तित्व पहले ही से था और उन्नीसवीं शताब्दी में वह स्वतंत्र 1. द्रष्टव्य-हिन्दी साहित्य का बृहत् इतिहास-द्वितीय खण्ड-सं० डा. लक्ष्मीसागर
वार्ष्णेय-पृ० 232 (प्रथम अध्याय)।